भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः इन्हें तृप्त करने का प्रयत्न छोड़कर तुम अपने एक मात्र परम पति शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वरूप परब्रह्म की ही ओर देखो। इसमें कोई आयास भी नहीं है; विषयदर्शन में तो आयास भी अधिक है और परिणाम में दुःख भी है। परन्तु ब्रह्मदर्शन में तो कोई परिश्रम भी नहीं करना पड़ता और उसका परिणाम भी परम सुखमय है। परब्रह्म तो स्वयं प्रकाश है, उसे प्रकाशित करने के लिये कोई व्यापार नहीं करना पड़ता; बल्कि उसके लिये तो व्यापार का त्याग ही कर्तव्य है। परन्तु विचित्रता तो यही है कि हमसे व्यापार ही नहीं छोड़ा जाता। यदि मन, बुद्धि और इन्द्रियों का व्यापार छूट जाय तो परब्रह्म की उपलब्धि तत्काल हो सकती है।
इसी से भगवान कहते हैं- ‘गोष्ठं मा यात’ जहाँ पशु प्राय जीव रहते हैं उस प्रपंच की ओर मत जाओ। ऐसा करने से ही उनका क्रन्दन शान्त होगा। यदि प्रतिबिम्ब पर दृष्टि न ले जाकर केवल दर्पण पर ही दृष्टि जाय तो प्रतिबिम्ब की प्रतीति नहीं होगी। इसी प्रकारय यदि तुम अपनी वृत्ति को अन्तर्मुख करके विषयों तक नहीं ले जाओगी तो तुम्हें विषम विषाक्त संसार की प्रतीति नहीं होगी। यदि कहो कि ये इन्द्रियाँ हमारे बालक हैं, हमें इन पर दया करनी ही चाहिये। इन्हें विषय प्रिय हैं, इसलिये हमें इन्हें अभिलषित विषय प्राप्त कराने ही चाहिये-तो इस पर भगवान कहते हैं- '‘तान् मा दुह्यत’ तुम इनके लिये अभिलषित पर्दाथ प्रस्तुत मत करो। इन्हें विषय प्राप्ति नहीं होगी तो ये स्वयं ही क्रमशः शान्त हो जायँगी। इन्हें विषय देना तो मानो विष देना है। यही बात प्रेमियों की आचार्यभूता व्रजांगनाओं से भगवान कहते हैं कि तुम व्रज में मत जाओ। मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड का परमपति हूँ। अतः तुम मेरी ही सेवा करो। इस समय यदि तुम्हारे बाल-बच्चे क्रन्दन भी करते हों तो भी उन्हें तुम पयःपान मत कराओ और न बछड़ों के लिये दोहन ही करो; क्योंकि वह तुम्हारे परमधर्म का विरोधी है। यदि भगवत्प्रेम में दया आदि धर्म विरोधी होते हों तो उनका त्याग ही करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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