भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
तुम कहते हो गीता हमारा सर्वस्व है, किन्तु गीता तो कहती है-
अब देखना यह है कि शास्त्र क्या कहता है? तुम शूद्रों को शास्त्राध्ययन कराना चाहते हो। परन्तु शास्त्र तो इसकी आज्ञा नहीं देता। यही नहीं, वर्णाश्रम धर्म का भी लोप करना चाहते हो। शूद्र और वैश्य ब्राह्मणों का कर्म कर रहे हैं और ब्राह्मण वैश्य तथा शूद्रों का। परन्तु शास्त्र तो कहता है- “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः।” अपने वर्णधर्म में तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं होती, उसमें तुम्हें दोष दिखाई देता है। यह तुम्हारा व्यामोह ही है। अर्जुन को भी ऐसा ही व्यामोह हुआ था। इसी से वह युद्ध में दोष-दृष्टि कर भिक्षा माँगने के लिये तैयार हो गया था। परन्तु बाह्य दृष्टि से ऐसा दोष किस कर्म में नहीं रहता ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।’ भाई, समाज का कोई भी अंग व्यर्थ नहीं है। शिर जैसा आवश्यक है वैसा ही चरण भी है। शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा हो, उसके कारण सारा शरीर ही अस्वस्थ रहा करता है। अतः हम किसी भी वर्ण को नगण्य और हेय नहीं समझते। हमारे विचार से तो सभी को परधर्म की ओर प्रवृत्त न होकर अपने ही वर्ण के लिये विहित कर्मों का यथाशक्ति अनुष्ठान करना चाहिये। इस प्रकार स्वधर्मानुष्ठान करते हुए नित्यप्रति कुछ काल के लिये अपनी इन्द्रियों की वृत्तियों का सर्वथा निरोध करने का भी प्रयत्न करो। ऐसा करते-करते परब्रह्म का साक्षात्कार होने पर ही इन इन्द्रियों का क्रन्दन बन्द होगा। इसके विपरीत यदि इन इन्द्रियरूप वत्स और बालकों को विषय-रूप पयःपान कराया जायगा तो ये और भी अधिक क्रन्दन करेंगे। तुम इन्हें जितना ही तृप्त करने का प्रयत्न करोगी ये उतना ही अधिक अतृप्त होते जायँगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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