भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
दूसरी बात यह है कि यदि वे रोयेंगे तो यह बतलाओ कि तत्त्व ज्ञान होने से पहले रोयेंगे या पीछे? पीछे तो रो नहीं सकते; क्योंकि उस समय तो वे अचिन्त्यानन्द-महार्णव श्री भगवान में अभिन्नरूप से स्थित हो जाने के कारण प्रपंच की अपेक्षा से ही रहित हो जाते हैं। भला अमृत के समुद्र को पाकर क्षुद्र कूप-तड़ागादि के लिये कौन व्यग्र होता है? और पहले इसलिये नहीं रो सकते कि प्रपंच का मिथ्यात्व सुनकर भी उसपर उनकी निष्ठा नहीं होगी। देखो, यह मनुष्य-शरीर कितना घृणित है? इसके ऊपर यदि चर्म न होता तो इसपर मक्खियाँ भिनकतीं। इसमें क्षणभर भी रहने की इच्छा न होती। इस बात को समझने के लिये विशेष विचार की भी आवश्यकता नहीं है। इस शरीर में अस्थि, मांस, रक्त आदि घृणित पदार्थ ही भरे हुए हैं। यह बात बहुत साधारण बुद्धि वाले पुरुषों को भी सुगमता से समझायी जा सकती है। तो भी हमारे जैसे अज्ञानियों की तो बात ही क्या है, बड़े-बड़े ऋषि, मुनि भी रम्भा-उर्वशी आदि अप्सराओं के उस अत्यन्त घृणित शरीर के ही लावण्य में फँस गये थे। इस प्रकार सब कुछ जानकर भी उन्हें जो मोह हुआ वह भगवती महामाया की ही महिमता है-
अतः भगवान कहते हैं-यदि तुम संसार का मिथ्यात्व प्रतिपादन करोगी तो भी वे अज्ञजन नहीं रोयेंगे, क्योंकि उनकी तो उसमें गति ही नहीं होगी। अब यह भी सन्देह हो सकता है कि यदि अज्ञानियों को परोक्ष रूप से भी यह निश्चय हो जायगा कि ऐन्द्र पद आदि सब मिथ्या हैं तो भी वे यज्ञ-यागादि में प्रवृत्त नहीं होंगे। वस्तुतः ऐसे अनधिकारियों ने ही अद्वैतवाद को कलंकित कर रखा है। उन्हें भले ही ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार न हुआ हो तथापि यह तो निश्चय हो ही जाता है कि कर्म नहीं, धर्म नहीं, लोक नहीं और वर्णा श्रमाचार भी नहीं। अतः वे धर्म-कर्मादि को तिलांजलि दे देते हैं। इन अधिकारियों के कारण ही अद्वैतवाद को कलंकित होना पड़ा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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