भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार जब इन्द्र ने इस सन्तापरूप तप से अपना मनोबल भस्म कर दिया, तो उमा देवी का आविर्भाव हुआ। उसी ने उन्हें भगवान का परिचय दिया। अतः स्मरण रखना चाहिये यह महावाक्यजनित ब्रह्माकारवृत्तिरूपा उमा ही प्रकट होकर जीव को परब्रह्म के पास ले जाती हैं। अतः हे बुद्धियों! यदि तुम मुझ परब्रह्म के पास आना चाहती हो तो 'शुश्रूषध्वं सतीः' भगवती शक्ति की उपासना करो। अथवा, जैसा हम पहले कह चुके हैं, सात्त्विक वृत्तियाँ ही सतियाँ हैं, उन्हें उद्बुद्ध करो। उनके उद्बुद्ध होने से जब तुम्हारी राजस-तामस वृत्तियाँ नष्ट हो जायँगी तभी तुम उन्हें प्राप्त कर सकोगी। अब यदि श्रुतियाँ कहें कि ‘महाराज ठीक है, परन्तु यदि हम संसार को छोड़कर अपने परम प्रियतम परब्रह्म का ही अवलम्बन करें, प्रपंच का आश्रयण करना छोड़ दें, तो उस अस्पर्श योग को सुनकर जो बालवत्स स्थानीय अज्ञजन हैं वे रोने लगेंगे, क्योंकि उनके लिये तो संसार ही सब कुछ है। वे तो पुत्र-कलत्र और धन-धनादि को ही अपना सर्वस्व समझते हैं। इस पर भगवान कहते हैं, 'वत्सा बालाश्च क्रन्दन्ति मा' अर्थात् ये वत्स और बालक भी क्रन्दन नहीं करेंगे। क्यों नहीं करेंगे? क्योंकि विवेकी के लिये संसार असत् होने पर भी उन अविवेकियों की दृष्टि में तो वह सत्य ही रहेगा। ‘नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्’ देखो, स्वप्न प्रपंच तो उसी का निवृत्त होगा जो जागेगा। जो जगा नहीं है उसके लिये तो स्वप्न का सारा व्यापार सत्य ही होता है। इसी प्रकार यह दृश्य-प्रपंच भी उसीके लिये मिथ्या होगा जो अपने शुद्ध स्वरूप में जागेगा, उसे तो इसकी निवृत्ति इष्ट ही है। इसके विपरीत अप्रबुद्ध के लिये इसकी निवृत्ति होगी नहीं। भगवान ने कहा है-
इसलिये बाल-वत्सस् थानीय अज्ञजन भी क्रन्दन नहीं करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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