भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
दुर्गा सप्तशती में सुरथ नामक राजा और समाधि नामक वैश्य का प्रसंग आता है। सुरथ शत्रुओं से पराजित होकर भागा था। उसका राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया था। अब उसमें उसका कोई स्वत्व नहीं रहा था तो भी उसे अपने सम्बन्धियों और हाथी-घोड़ों की स्मृति सताती थी। इसी प्रकार समाधि को उसके पुत्रादि ने घर से निकाल दिया था तो भी उसे घर और घरवालों को ही स्मृति बनी रहती थी। उन्होंने एक मुनिवर के पास जाकर इस अनभिमत चिन्ता का कारण पूछा। तब मुनि ने कहा-
अतः भगवान कहते हैं- यदि तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं होती तो ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ भगवती शक्ति का समाश्रयण करो; क्योंकि-
क्योंकि वह सर्वात्मिका है- ‘या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता’, ‘या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता’ अपने से विमुख लोगों के लिये भ्रान्ति रूप से प्रकट होती है और अपने भक्तों के लिये वही परम कल्याणी विद्या देवी है।
अथवा ‘सती’ शब्द से सात्त्विकी वृत्ति भी विवक्षित हो सकती है। अतः इसका तात्पर्य यह है कि पहले सात्त्विक वृत्तियाँ जागृत करो। भगवान का नाम जप करो, प्रभु का गुणगान करो और राजस-तामस वृत्तियों को त्याग करों ऐसा करते-करते पीछे परब्रह्म परमात्माकाराकारिता वृत्ति हो जायगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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