भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान गौड़पादाचार्य कहते हैं-
जो वस्तुतः भगवतत्त्व के रहस्यज्ञ हैं वे तो यह सब देखकर उलटे प्रसन्न होते हैं। वे जानते हैं कि यदि वापी-कूपादि समुद्र में एकीभाव को प्राप्त हो जायँ तो उनकी अपेक्षा नहीं रहती। इसी प्रकार अचिन्त्यानन्द सुधासिन्धु श्रीभगवान ही तो सारे सुख के अधिष्ठान हैं; यदि उनमें हमारे सारे क्षुद्र सुख समा जाते हैं तो आनन्द ही है। जो लोग विषयासक्त हैं, जो ‘यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्ये’ इस सिद्वान्त के मानने वाले हैं वे ही ‘नेह नानास्ति किंचन’ इस सिद्धान्त को सुनकर रोते हैं। उन्हीं के लिये कहा है- ‘क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च।’ अतः तुम प्रपंच का सत्यत्व प्रतिपादन करके उन्हें ही तृप्त करो और उनके लिये अभीष्ट फलरूप दुग्ध दुहो। यह उनके प्रति तुम्हारी करुणा होगी। यद्यपि परब्रह्म की ही उपासना करने से तुम्हारा पातिव्रत भग्न नहीं होगा, क्योंकि ‘तमेतं ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन’ इस श्रुति के अनुसार विचार वानों के सारे जप-तप का परम लाभ ब्रह्मज्ञान ही है, तथापि दया तो करनी ही चाहिये। महानुभाव तो सर्वदा ‘सर्वभूतहिते रताः’ ही हुआ करते हैं; अतः तुम भी उन्हें अभीष्ट वस्तु देकर उनका आप्यायन करो। इस श्लोक का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि समस्त प्राणियों की बुद्धियाँ ही व्रजांगनाएँ हैं और भगवान कृष्ण उनके साक्षी हैं। अतः ‘तद्यात गोष्ठं मा’ ऐसा पदच्छेद करके यह तात्पर्य समझना चाहिये कि अब तुम गोष्ठ को मत जाओं अर्थात् साध्य-साधनात्मक प्रपंच का प्रतिपादन मत करो, बल्कि ‘शुश्रूषध्व पतीन्।’ यहाँ ‘पतीन्’ इस पद में बहुवचन गौरवार्थ है। अर्थात् उपक्रम, उपसंहार, अपूर्वता आदि षद्विध लिंगों से मेरे में ही अपना तात्पर्य निश्चय करो। ‘त्रेगुण्यविषया वेदाः’ यह भगवान का कथन अविवेकियों की ही दृष्टि से है। विचार वानों का तो यही कथन है कि ‘वदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो।’ अतः त्रिगुणमय संसार के साथ संसर्ग करना ही अमंगल है। परब्रह्म परमात्मा का अनुस्मरण ही एकमात्र कल्याण का मूल है। अतः श्रुति प्रपंचपरक है-ऐसा प्रसिद्ध होने से तुम कलंकित हो जाओगी और यदि त्रिगुणातीत शुद्ध परब्रह्म का प्रतिपादन करोगी तो तुम भी गुणातीत हो जाओगी और इससे तुम्हें महत्ता प्राप्त होगी। परन्तु यह होगा कैसे? इसके लिये तुम ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ अर्थात् ‘सत्यं ज्ञानधनन्तं ब्रह्म’ आदि जो श्रुतियाँ परब्रह्म का प्रतिपादन करती हैं, तुम उन्हीं के सिद्धान्त का अनुसरण करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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