भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वे अनन्त अविकारी परमानन्दमूर्ति परब्रह्म के कण ही तो हैं। वे उस परमानन्त-सिन्धु की बूँदें ही तो हैं। किन्तु लोग भ्रमवश भगवान को छोड़कर तुच्छ वैषयिक सुखों को अभिलाषा करके व्यर्थ दुःख पाते हैं। श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं-
इस प्रकार, क्योंकि वैषयिक सुख परब्रह्म परमात्मा के ही अंशभूत हैं, इसलिये वे उनके द्वारा उन अज्ञ पुरुषों के, जो कि अनन्त भगवत्स्वरूपानन्द से अनभिज्ञ हैं, उन विषयों की अप्राप्ति के कारण होने वाले शोक को निवृत्त करते हुए प्रकट हुए। और क्या करते हुए प्रकट हुए? ‘प्राच्याः प्राचीनायाः निर्वृत्तिकायाः बुद्धेर्मुखं प्रधानं सत्त्वात्मकं भागम् अरुणेन स्वाभिव्यक्तिजनितेन सुखेन विलिम्पन् उदगात्’ अर्थात वे प्राचीना यानी निवृत्ति-कामिनी बुद्धि के मुख यानी प्रधान सात्त्विक भाग को अपनी अभिव्यक्ति से उत्पन्न हुए सुख के द्वारा विलेपित करते हुए उदित हुए। भगवत्सुख का बुद्धि पर ही लेप करना युक्तियुक्त भी है; क्योंकि वही उसे ग्रहण कर सकती है-‘स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते’ अर्थात् ब्रह्माभिव्यक्तिजनित जो सुख है उसकी अभिव्यक्ति निश्चयात्मिका बुद्धि पर ही होती है। वे परब्रह्मरूप उडुराज किस प्रकार उदित हुए, सो बतलाते हैं- ‘यथा कश्चित् दीर्घदर्शन: दीर्घेण कालेन दर्शनं यस्य एवंभूतः प्रियः प्रियायाः विप्रोषितभर्तृकायाः शुचः विभागसम्भूतानि शोकाश्रुणि शन्तमैः करैः करव्यापारैः मृजन् करधृतेन अरुणेन कंकुमेन मुखं विलिम्पन् च स्यात्तथा’ अर्थात जिस प्रकार कोई दीर्घकाल के अनन्तर आने वाला प्रवासी पति अपनी वियोगसन्तप्ता प्रियतमा के शोकाश्रुओं को अपने सुशीतल कर-व्यापारों से पोंछता है तथा उसके मुख को अपने हाथ में लिये हुए कंकुम से लाल कर देता है उसी प्रकार ये उडुराज उदित हुए। अथवा यों समझो कि जिस समय भगवान ने रमण करने की इच्छा की और गोपांगनाओं के सौन्दर्य-माधुर्य एवं तप का स्मरण कर उनको वृन्दारण्य में आह्वान करने का संकल्प किया उसी समय उडुराज-प्रेमाम्बुराशि की वृद्धि करने वाला चन्द्रमा सस्यरूप चर्षणियों के शोक सूर्य की तीक्ष्मणतर किरणों से उत्पन्न हुई म्लानता को अपनी सुशीतल किरणों से निवृत्त करता हुआ उदित हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज