भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसके सिवा ‘उडुराजः’ इस शब्द से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र भी अभिप्रेत हो सकते हैं; क्योंकि यौवन की अतिशयता[1] के कारण उडुओं-नक्षत्रों के समान स्वच्छ हैं और रंजन यानी अनुराग-जनक होने के कारण राजा हैं। अथवा यदि ‘उरुराजः’ ही ‘उडुराजः’ है- ऐसा मानें तो इस प्रकार अर्थ करना चाहिये- ‘स्वकीयप्रेमातिशयेन उरुधा रंजयतीति उरुराजः’ अथवा ‘उरून महतस्तत्त्वदर्शिनोऽपि महामुनीन् रंजयति स्वानुरागयुक्तान् करोतीति उरुराजः’ अर्थात अपनी प्रेमातिशयता के कारण अनेक प्रकार से रंजन करते हैं अथवा जो महान तत्त्वदर्शी भी हैं उन महामुनियों का भी अपने अनुराग-विशेष के द्वारा अनुरंजन करते हैं इसलिये श्रीकृष्णचन्द्र उरुराज हैं। वे प्रिय अर्थात धन, धाम और सुहृदर्ग से भी प्रियतर[2] यानी सबके सर्वस्वभूत और दीर्घदर्शन-जिनका दर्शन दीर्घ यानी अत्यन्त मूल्यवान है, ऐसे श्रीकृष्णचन्द्र चर्षणी यानी गोपीजनों के शोक-प्रियतम के विरह-जनित सन्ताप को निवृत्त करने तथा ‘ककुभः[3]’ सौन्दर्यातिशय के कारण मन्दगामिनी प्राची पूजनीया प्रियतमा श्रीवृषभानुनन्दिनी के मानादिजनित आँसुओं को अपने कर-व्यापारों से निवृत्त करते एवं अरुण कुंकुमादि से उनका मुख विलेपित करते विहारस्थल में आविर्भूत हुए। श्रीवृषभानुनन्दिनी भगवान की नित्य सहचरी हैं। जिस प्रकार शक्ति के बिना शिव, मधुरिमा के बिना मिश्री और दाहिका शक्ति के बिना अग्नि नहीं रह सकते उसी प्रकार श्रीराधिका जी के बिना श्यामसुन्दर नहीं देखे जाते। वे उनकी स्वरूपभूता आह्लादिनी-शक्ति हैं। उन्हीं के कारण श्रीकृष्णचन्द्र की सारी शोभा है; अतः उन्हें छोड़कर वे एक पल भी नहीं रह सकते। वे निरन्तर उनकी सन्निधि में रहते हैं और एक-दूसरे से तादात्म्य को प्राप्त हो परस्पर एक-दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यों तो भगवान की अवस्था इस समय केवल 8-10 वर्ष की थी; किन्तु रासक्रीड़ा के लिये वे इस समय अपनी योगमाया से युवावस्थापन्न हो गये थे।
- ↑ ‘यद्धामार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्तत्कृते।’ अर्थात गोपांगनाओं के गृह, धन, सुहृद, प्रिय, आत्मा, पुत्र, प्राण और मन ये सभी जिनके लिये थे।
- ↑ ‘कुम्भ मन्दायां गतौ’ इस धातु से ‘ककुभः’ शब्द सिद्ध होता है।
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