भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गायत्री-तत्त्व
‘छान्दोग्योनिषद’ में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण चराचर भूत प्रपंच गायत्री ही है। किस तरह सब कुछ गायत्री है, इस पर कहा गया है कि वाक ही गायत्री है, वाक ही समस्त भूतों का गान एवं रक्षण करती है। गो, अश्व, महिषि, ‘मा भैषीः’ इत्यादि वचनों से वाक द्वारा ही भय की निवृत्ति होती है। गायत्री को पृथ्वी रूप मानकर उसमें सम्पूर्ण भूतों की स्थिति मानी गयी है, क्योंकि स्थावर जंगम सभी प्राणिवर्ग पृथ्वी में ही रहते हैं, कोई भी उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। पृथ्वी को शरीररूप मानकर उसमें सम्पूर्ण प्राणों की स्थिति मानी गयी है। शरीर को हृदय का रूप मानकर उसमें सम्पूर्णं प्राणों की प्रतिष्ठा कही गयी है। इस तरह चतुष्पाद, पडक्षरपाद, गायत्री, वाक, भूत, पृथ्वी, शरीर, हृदय प्राणरूपा षडविधा गायत्री का वर्णन है। पुनश्च, सम्पूर्ण विश्व को एकपादमात्र कहकर अन्त में त्रिपाद ब्रह्म को पृथक कहा है। इसके अतिरिक्त पूर्व कथनानुसार गायत्री-मन्त्र के द्वारा सगुण, निर्गुण किसी भी ब्रह्मस्वरूप की उपासना की जा सकती है। उत्पत्ति शक्ति ब्रह्माणी, पालिनी शक्ति, नारायणी, संहारिणीशक्ति रुद्राणी का ध्यान गायत्री-मन्त्र के द्वारा सुतरां हो सकता है। राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, गणेश आदि जिन-जिनमें विश्वकारणता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता प्रमाण सिद्ध है, वे सभी परमेश्वर हैं, सभी गायत्री-मन्त्र के अर्थ हैं। इस दृष्टि से अपने इष्ट देवता का ध्यान गायत्री-मन्त्र द्वारा सर्वथा उपयुक्त है। ‘सविता’ शब्द सूर्य के सम्बन्ध में विशेष प्रसिद्ध है, अतः उसी की सारशक्ति सावित्री को आदित्यमण्डलस्थ भी कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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