भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गायत्री-तत्त्व
महर्षि कण्व ने अमृतमय दुग्ध से मही को पूर्ण करती हुई गोरूप से गायत्री का अनुभव किया था-
विश्वमाता, सुमतिरूपा वरेण्य सविता की गर्भस्वरूपा गायत्री का मैं वरण करता हुँ, जिसको कण्व ने हजारों पयोधारा से महीमण्डल को पूर्ण करते हुए देखा। मोती, मूँगा, सुवर्ण, नील धवलकान्तिवाले पाँच मुखों, तीन-तीन नेत्रों से युक्त, इन्द्रनिबद्ध रत्नों के मुकुटों को धारण किये, वरद, अभ्य, अंकुश कशा, सुभ, कपाल गुण, शंख, चक्र, अरविन्द-युगल दोनों ही तरफ के हाथों में लिये हुए भगवती का ध्यान करना चाहिए। पंचतत्त्वों एवं पंच देवताओं की सारभूत महाशक्ति एकत्रित होकर पंचमुखी भगवती के रूप में प्रकट है।
इस स्वरूप के ध्यान में सगुण-निर्गुण दोनों ही ब्रह्मरूप आ जाते हैं। दिव्य-कमल पर विराजमान, मनोहर भूषण अलंकारों से विभूषित, सुसज्जित उपर्युक्त स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। गायत्री मन्त्र का जप चाहे किसी स्थान, समय एवं स्थिति में नहीं किया जा सकता। इसके लिये पवित्र देश-काल तथा पात्र की अपेक्षा है, तभी वह त्राण कर सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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