नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. महर्षि लोमश–शकट-भञ्जन
कंस ने श्रीधर विप्र को भेजा, काकासुर को भेजा और दोनों असफल होकर, आहत होकर गोकुल से लौट आये। दोनों ही कंस को त्यागकर चले गए। वह असुर काक तो मेरे आश्रम में आ गया है। उसने सुन रखा था कि काकभुशुण्डि मेरे शिष्य हैं, अत∶ सद्बुद्धि आने पर उसे मेरी शरणागति सूझी है। वह थोड़ा विश्राम कर ले तो उसे काकभुशुण्डि के समीप भेज दूँगा। पक्षी के लिए पक्षी गुरु ही उचित है। काकासुर को कंस ने भेजा था। बड़े उत्साह से गया था यह। इसने मुझे निष्कपट सब सुना दिया है। सोचा था इसने- 'नन्दभवन पर कहीं भी बैठे रहने में कठिनाई नहीं है। वह शिशु ही तो है कंस का काल। अकेला मिलेगा पालने में तभी यह उसके कण्ठ पर अपनी वज्र-चोंच का भरपूर प्रहार कर देगा। एक आघात पर्याप्त है।' यह गोकुल गया और नन्दभवन पर इसे देर तक बैठना भी नहीं पड़ा। काक के लिए दो क्षण का अवसर पर्याप्त था; किंतु उड़कर उस यशोदा-स्तनन्धय के समीप पहुँचा तो उसी ने अपने नन्हे, सुकुमार कर से इसके पंख पूँछ सहित पकड़ लिये और इसे घुमाकर फेंक दिया। सीधे मथुरा में कंस के सिंहासन के सम्मुख ही यह गिरा। श्रीकृष्ण का स्पर्श मिला इसे और सद्बुद्धि आ गयी। समझ गया कि क्रूर उद्योग भले असफल हो गया; किंतु जीवन सफल हो गया। कंस की समझ में इसकी बात आने वाली नहीं थी। कंस इस काक के कहने से तो श्रीकृष्ण की शरण जाने से रहा। यह मथुरा त्यागकर मेरे पास आ गया है। अब उस सौन्दर्य, सौकुमार्य, आनन्द शिशु का स्पर्श अन्तर में बस गया है। उसकी रूप-राशि भूलती नहीं। मैं इसे काकभुशुण्डि के समीप भेज दूँगा कि उनके साथ गोकुल जाकर उस श्याम-शिशु का स्नेह-सहित सादर दर्शन प्राप्त कर सके। अभी मुझे बेचारे उत्कच को अपने शाप से- भव-पाश से भी मुक्त कराना है। कृपासिन्धु नन्दनन्दन मेरा अनुरोध स्वीकार कर लेंगे, यह मुझे आशा है और उत्कच भी नन्द-भवन पहुँच ही रहा है। कंस अत्यन्त चिन्तित है। उसका काल गोकुल में पल रहा है, बढ़ रहा है। |
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