नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
89. श्रीराधा
राधा ने तो किसी से कभी स्पर्धा नहीं की। मैं किस बल पर स्पर्धा करूँगी? उनका तो अहैतुक प्रेम है मुझ पर-इसके अतिरिक्त क्या है मेरे पास? यह तो वही जानते होंगे कि क्यों वे मुझे इतना प्रेम-दान करते हैं। मैं कहाँ अपने को उनके प्रेम की अधिकारिणी पाती हूँ। मैं इतना जानती हूँ कि मैं उनकी हूँ-उन्हीं की हूँ। उन्हीं की श्वास इस शरीर में जीवन बनी है। उनके अतिरिक्त-उनसे पृथक तो राधा की सत्ता ही नहीं है। वे भी कहीं और सुखी नहीं हो पाते। वे मेरे समीप-मुझसे ही आनन्दित हेाते हैं यही अनुभूति मेरा जीवन है। वे मुझसे पृथक रह भी सकते हैं, यह सोचना भी अपराध है। ऐसा कभी सम्भव नहीं है। अब उनके वियोग की यह अनुभूति- प्राणों को उन्मथित कर देने वाली यह विषमय वाड़वाग्नि- इसकी कोई परिभाषा, इसका कोई समुचित समाधान मेरे पास नहीं है। यह मेरा उन्माद है-उनके अपार प्रेम ने मुझे उन्मादिनी बना दिया है। उनके अंक में होने पर यह भी वियोग वाड़व जाग जाता है और लगता है कि वे प्राणधन मेरा परित्यागकर कहीं चले गये। मैं उन महाधन को पाकर ही तो धनी हूँ, उनके स्नेह से ही तो सम्मानिता हूँ। आशंका भी उठती है अन्तर में कि मैं उससे वञ्चिता हो गयी तो मेरे दुःख का पार नहीं रहता। उस दारुण दुःख को दूसरा कोई समझ नहीं सकता। कोई समझेगा भी कैसे- दुःख का कोई कारण तो कहीं किसी को दीखता नहीं। मैं किसी को क्या समझाऊँ-स्वतः भी समझ रही हूँ कि यह मेरा मानसिक भ्रम-मेरा चित्त-वैचित्य सखियों के अपार कष्ट का कारण है। ये सब परम स्नेहशीला मेरे दुःख से संतप्त होती हैं। नाना प्रकार के कष्ट उठाती हैं। मुझे ही सुखी करने में-स्वस्थ, सावधान रखने में संलग्न रहती हैं। मेरे प्राणधन को भी कष्ट होता है मेरी व्याकुलता देखकर। वे किसी की भी कातरता देख नहीं पाते, मैं तो उनकी अपनी हूँ। लेकिन मेरी यह विवशता-यह भी उन्हें प्रिय होगी। मैं उनकी हूँ तो मेरी दुर्बलताओं को भी तो उन्हें ही दुलराना है। वे यह करते हैं- उन्हें यह करना बहुत अच्छा आता है। वे मेरे-मैं उनकी-उन्हीं की। |
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