नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. देवर्षि नारद-धेनुक-ध्वंस
वेत्र-लकुट, शृंग, रज्जु सब समीप धारी हैं। वृक्षों पर भ्रमरावाली गुंजार करती है। पक्षियों का समूह बैठा है समीप के तरुओं पर; किंतु केवल कोकिल, पपीहा जैसे सुस्वर पक्षियों का स्वर सुनायी पड़ रहा है। 'दादा! तूने ताड़ खाया है?' श्रीदाम ने यह देखकर पूछा कि अब ये दोनों भाई अपने चरण सिकोड़ने लगे हैं। अब ये उठने ही वाले हैं। 'तू ले आया है क्या?' श्यामसुन्दर उठ कर बैठ गये। 'यहाँ तो ताड़ वृक्षों का बहुत बड़ा वन है।' वरूथप ने बतलाया- मुझे ध्यान ही नहीं रहा। इधर पशु नहीं लेना चाहिए थे।' 'क्यों!' कृष्णचन्द्र ने पूछा। 'ताड़वन में दुरात्मा धेनुक गधा रहता है अपने परिवार के साथ।' वरूथप ने जो कुछ वृद्ध गोपों से सुना था, कह दिया- 'बाबा ने मना किया है उधर जाने से। वह गधा पशुओं और मनुष्यों को भी खा जाता है।' 'तब वह राक्षस होगा!' भद्र ने कहा। 'दादा! वहाँ वृक्ष पके फलों से लदे हैं। वे फल गिरते ही रहते हैं।' श्रीदाम अपने मन की कह रहा है- 'वायु में उन फलों की सुगन्धि है। वे गधे न स्वयं फल खाते, न किसी को वहाँ आने देते। केवल पक्षी वहाँ पहुँचते हैं और वे ताड़ खा नहीं सकते। मेरा मन ताड़ खाने को कर रहा है। तू चलेगा?' 'मैं ताड़ खाऊँगा!' तोक उठकर कूदने लगा- 'उसकी गुठली रख दूँगा। अंकुर आवेगा उसमें तब कुठार से काटने पर उज्ज्वल, मीठी गिरी निकलेगी।' तोक ऐसे चटखारे ले रहा है जैसे ताड़ की गिरी अभी इसके मुख में पहुँच गयी है। 'दादा! उठ न! यह ले अपना लकुट!' तेजस्वी ने लकुट उठाकर दे दिया- 'हम सब ताड़ खाना चाहते हैं। उठ और चलकर हमें ताड़ दे!' 'अच्छा! अपने पशु भी उठ गये।' दाऊ ने बैठे-बैठे ही देखा और उठ खड़े हुए- 'ताड़ों के मध्य अच्छी ऊँची घास उगी होगी। गायें चरकर तृप्त हो जायँगी।' मैं समझ गया कि महर्षि दुर्वासा के शाप की समाप्ति का समय आ गया। अब धेनुक का उद्धार कुछ क्षणों की बात रह गयी है। काले, ऊँचे, पुष्ट वृक्ष ताड़ों के इतने सघन कि उनके सिर के छत्राकार पत्र प्रायः सटे हुए हैं। पत्रों की जड़ों में पूरे वृक्ष के सिरे को घेरे कृष्ण पीत किञ्चित अरुणाभ ताड़-फलों के भारी गुम्फ हैं सभी वृक्षों में। फल गिरे हैं, मध्य में भद के शब्द के साथ गिरते हैं; किंतु बहुत सघन घास है। इसमें गिरे फल सहसा दीखते नहीं हैं। |
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