नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. गणेश-गोचारण
श्रीकृष्णचन्द्र के सखाओं में मधुमंगल मुझे परमप्रिय है। अनेक बार सन्देह होता है, मैं उसी का अंश तो नहीं हूँ। मेरे ही समान मोदक-प्रिय, लम्बोदर और उसकी कर्पूरगौर अंगकान्ति तो मुझे अपने पूज्य पिता का स्मरण कराती रहती है। केवल कभी-कभी कष्ट होता है मुझे- व्यथा होती है जब श्रीव्रजेश्वरी, व्रजराज खिन्न होते हैं अथवा व्रजराजकुमार श्रान्त होते हैं। मैं विघ्नवारक हूँ, क्लेश हारक हूँ; किंतु अत्यन्त असमर्थ हूँ यहाँ। श्रीकृष्ण की प्रीति से समुत्थित परम पुण्यमयी व्यथा को किञ्चित भी तो कम नहीं कर पाता! कल सायंकाल गोचारण से लौटते ही व्रजराजकुमार बाबा के अंक में आ बैठे। वन में सखाओं के साथ मन्त्रणा कर आये थे, अब उसे मूर्त्त करने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया। बाबा के कण्ठ में दोनों कर डालकर पूछा- 'बाबा! मैं अब बड़ा हो गया? बाबा ने स्नेह-भरित स्वर में कह दिया- 'हाँ, मेरा लाल अब बहुत बड़ा हो गया है। बुद्धिमान भी हो गया है।' 'बडे़ गोप तो गायें चराते हैं।' अब वास्तविक बात कही गयी- 'कल से मैं सब गायें और वृषभ चराने ले जाया करूँगा!' अब श्रीव्रजराज चौंके। यह तो कल्पना ही नहीं थी कि उनका यह सुकुमार कुमार ऐसी बात कहेगा। अब वे कितना भी कहें कि 'गायों को वन में दूर ले जाना पड़ता है। इतनी अधिक गायें हैं और उनमें बहुत-सी इधर-उधर भागती हैं। उनके पीछे बहुत भटकना पड़ता है। वृषभ परस्पर लड़ने लगते हैं तो उन्हें किसी के घायल होने का ध्यान नहीं रहता। बालकों के वश का यह काम नहीं है। अभी बछडे़ चराना ही उचित है श्यामसुन्दर को।' |
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