गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 69

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

आठवाँ अध्याय

Prev.png

आपके किस स्वरूप का चिन्तन करने से नियतात्मा मनुष्य आपको कैसे प्राप्त कर लेता है भगवन्?
मेरे सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार-ये तीन स्वरूप हैं। इनमें से पहले मैं सगुण-निराकार के चिन्तन से अपनी प्राप्ति बताता हूँ। हे पार्थ! जो मनुष्य अभ्यासयोग से युक्त अनन्य चित्त से परम दिव्य पुरुष का अर्थात् मेरे सगुण-निराकार स्वरूप का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह मेरे उसी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।।8।।

वह स्वरूप कैसा है भगवन्?
वह सर्वज्ञ है, सबका आदि है, सब पर शासन करने वाला है, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म है, सबका धारण-पोषण करने वाला है, अचिन्त्य है, और अज्ञान-अन्धकार से रहित तथा सूर्य की तरह प्रकाशस्वरूप है। ऐसे स्वरूप का जो चिन्तन करता है, वह भक्तियुक्त् मनुष्य अन्तकाल में योगबल के द्वारा अचल मन से अपने प्राणों को भृकुटी के मध्य में अच्छी तरह से स्थापन करके शरीर छोड़ने पर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।।9-10।।

मैंने आपके सगुण-निराकार स्वरूप के चिन्तन से आपकी प्राप्ति की बात सुन ली। अब यह बताइये कि निर्गुण-निराकार के चिन्तन से नियतात्मा मनुष्य आपको कैसे प्राप्त करता है?
वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, रागरहित यतिलोग जिसको प्राप्त करते हैं और जिसको प्राप्त करने की इच्छा से ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद की प्राप्ति की बात मैं संक्षेप से कहूँगा। जो साधक अन्तकाल में सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके, मन को हृदय में स्थापित करके और प्राणों को मस्तिष्क में धारण करके योग-धारणा में स्थित हुआ ‘ऊँ’ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण और मेरे निर्गुण-निराकार स्वरूप का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।।11-13।।

Next.png

संबंधित लेख

गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः