गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 6

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

पहला अध्याय

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अर्जुन क्या बोले संजय?
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! अपने खास कुटुम्बियों को युद्ध के लिये सामने खड़े हुए देखकर मेरे सब अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, शरीर में कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।।26-30।।

इसके सिवाय और क्या देख रहे हो अर्जुन?
हे केशव! मैं शकुनों को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में इन कुटुम्बियों को मारकर कोई लाभ भी नहीं देख रहा हूँ।।31।।

इनको मारे बिना राज्य कैसे मिलेगा?
हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगों को राज्य से, भोगों से अथवा जीने से भी क्या लाभ?।।32।।

तुम विजय आदि क्यों नहीं चाहते?
हम जिनके लिये राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही सब-के-सब लोग अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध के लिये खड़े हैं।।33।।

वे लोग कौन हैं अर्जुन?
आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी बहुत-से सम्बन्धी हैं।।34।।

ये ही लोग अगर तुम्हें मारने के लिये तैयार हो जायँ, तो?
ये भले ही मुझे मार डालें, पर हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाय तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के राज्य के लिये तो कहना ही क्या है?।।35।।

अरे भैया! राज्य मिलने पर तो बड़ी प्रसन्नता होती है, क्या तुम उसको भी नहीं चाहते?
हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र के सम्बन्धियों को (जो कि हमारे भी सम्बन्धी हैं) मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिये हे माधव! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को हम मारना नहीं चाहते; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हमे कैसे सुखी हो सकते हैं।।36-37।।

ये तो तुम्हें मारने के लिये तैयार ही हैं, तुम ही पीछे क्यों हट रहे हो?
महाराज! इनका तो लोभ के कारण विवेक-विचार लुप्त हो गया है, इसलिये ये दुर्योधन आदि कुल के नाश से होने वाले दोष और मित्रदोह से होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से होने वाले दोष को जानने वाले हमलोगों को तो इस पाप से बचना ही चाहिये।।37-39।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

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