समदर्शी होने से क्या होता है?
जिनका मन सर्वथा साम्यावस्था में अर्थात् परमात्मतत्त्व में स्थित हो गया है, उन्होंने यहीं (जीते-जी) संसार को जीत लिया है अर्थात् वे संसार से ऊँचे उठ गये हैं। कारण कि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे समरूप ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।।19।।
ऐसी साम्यावस्था में स्थित होने का उपाय क्या है?
व्यवहार में प्रिय-अप्रिय अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर भी जो हर्ष और शोक नहीं करता, वह मोहरहित, स्थिर-बुद्धिवाला और ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य परमात्मा में ही स्थित रहता है।।20।।
यह स्थिति किस क्रम से प्राप्त होती है भगवन्?
जो बाह्य पदार्थों में आसक्ति नहीं करता, वह पहले अपने-आप में स्थित सात्त्विक सुख को प्राप्त कर लेता है। फिर वह परमात्मा के साथ एक होकर अक्षय सुख का अनुभव करता है।।21।।
बाह्य पदार्थों की आसक्ति से कैसे बचें?
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले जितने भी भोग (सुख) हैं, वे सभी दुःखों के ही कारण हैं और आदि-अन्तवाले (आने-जाने वाले) हैं। इसलिये विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।।22।।
उन भोगों में रमण न करने वाले मनुष्य की क्या विशेषता है?
जो मनुष्य शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध के वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है अर्थात् काम-क्रोध के वेग को उत्पन्न ही नहीं होने देता, वही सुखी है, वही योगी है और वही नर अर्थात् बहादुर है।।23।।
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