तो फिर मनुष्य को क्या करना चाहिये?
अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करना चाहिये। गुणों की कमीवाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय तो वह (अपने धर्म का पालन) कल्याण करने वाला है। परन्तु दूसरों का धर्म कितना ही गुण वाला होने पर भी भय को देने वाला है।।35।।
अर्जुन बोले- जब अपने धर्म का पालन करना ही श्रेष्ठ है तो फिर मनुष्य न चाहता हुआ भी बलपूर्वक लगाये हुए के समान किससे प्रेरित होकर अधर्म का, पाप का आचरण करता है?।।36।।
भगवान् बोले- रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम (कामना) को ही तू पाप कराने वाला समझ। इस काम से ही क्रोध पैदा होता है। यह काम कभी भी तृप्त न होने वाला और महापापी है, इस विषय में तू उस काम को वैरी समझ।।37।।
यह महापापी काम क्या करता है?
जैसे धुआँ अग्नि को, मैल दर्पण को और जेर गर्भ को ढक देता है, ऐसे ही यह काम (कामना) पाप न करने की इच्छा को दबाकर मनुष्य को पाप में लगाता है; और हे कुन्तीनन्दन! यह काम अग्नि की तरह कभी तृप्त न होने वाला और विवेकी साधकों का नित्य वैरी है। इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढक जाता है।।38-39।।
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