गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 32

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

तीसरा अध्याय

Prev.png

आपके लिये कर्तव्यकर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
हाँ पार्थ, जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्यकर्म न करूँ तो मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अर्थात् वे भी कर्तव्यकर्म करना छोड़ देंगे।।23।।

इससे क्या होगा भगवन्?
अगर मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तो अपना-अपना कर्तव्यकर्म न करने से सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँगे और मैं सब तरह के संकर दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँगा।।24।।

इस दृष्टि से आपके लिये तो लोकसंग्रह के लिये कर्तव्यकर्म करना बहुत जरूरी है, पर तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिये भी कर्तव्यकर्म करना जरूरी है क्या?
हाँ अर्जुन! जरूरी ही नहीं, बहुत जरूरी है! जैसे अज्ञानी मनुष्य कर्मों में आसक्त होकर फल की इच्छा से तत्परतापूर्वक कर्मों को करते हैं, ऐसे ही आसक्तिरहित ज्ञानी महापुरुष को भी लोकसंग्रह के लिये तत्परतापूर्वक कर्म करने चाहिये। ज्ञानी महापुरुष को चाहिये कि वह कर्मों में आसक्त उन अज्ञानी मनुष्यों की बुद्धि में किसी प्रकार का भ्रम पैदा न करके स्वयं भी बड़ी सावधानी से कर्म करे तथा उनसे भी वैसे ही कर्म करवाये।।25-26।।

Next.png

संबंधित लेख

गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः