गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 123

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

सोलहवाँ अध्याय

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18. हृदय का कोमल होना।

19. अकर्तव्य करने में लज्जा होना।

20. चपलता (उतावलापन) न होना।

21. शरीर और वाणी में तेज (प्रभाव) होना।

22. अपने में दण्ड देने की सामर्थ्य होने पर भी अपराधी के अपराध को माफ कर देना।

23. हरेक परिस्थिति में धैर्य रखना।

24. शरीर को शुद्ध रखना।

25. बदला लेने की भावना न होना।

26. अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना।

हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं अर्थात् इन लक्षणों वाले को मेरी भक्ति का अधिकारी मानना चाहिये[1]।।1-3।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153
  1. यहाँ यह शंका होती है कि जो ऐसे लक्षणों वाले हैं, वे तो भक्ति के अधिकारी हैं, पर जिनमें ऐसे लक्षण नहीं हैं वे दुराचारी मनुष्य तो भक्ति के अधिकारी हो ही नहीं सकते? बात तो ठीक ही है; परन्तु यदि कोई दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभाव से भगवान् में लग जाता है तो वह बहुत ही शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् भगवत्कृपा से दैवी सम्पत्ति के लक्षण शीघ्र आ जाते हैं (गीता 9। 30-31)।

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