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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
भीष्म-युधिष्ठिर की भेंट
कृष्ण जब अर्जुन को अपने सुन्दर उपदेशों से प्रेरित कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि धर्मराज युधिष्ठिर अपने अस्त्र-शस्त्र कवच आदि उतार कर पैदल कौरवों की सेना की ओर चले जा रहे हैं। भीम, नकुल, सहदेव आदि भाई और दूसरे सामन्त लोग आश्चर्य से तमाशा देखने लगे। सभी को यह हैरानी हो रही थी कि धर्मराज को आखिर यह क्या पागलपन सूझ रहा है। भीम आदि भाइयों ने धर्मराज से पूछा भी पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। वे आगे आये तो अर्जुन ने भी आश्चर्य से अपने बड़े भाई को कौरव पक्ष की ओर जाते हुए देखा, वे एकाएक कह उठे- “धर्मराज को यह क्या हो गया, ऐसे दीन भाव से वे कहाँ जा रहे हैं।” यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा- “अर्जुन इतने वर्षों तक साथ-साथ रह कर भी तुमने अपने बड़े भाई का मन नहीं पहचाना। वे श्रेष्ठ संस्कृति के पुजारी हैं, कोई भी शुभ काम करने के पहले वे भला अपने पूज्य बड़े-बूढ़ों के चरण छूकर उनसे आशीर्वाद पाये बिना कैसे आगे बढ़ सकते हैं। युद्ध की गर्मा-गर्मी में भी शुद्ध संस्कारों का विनयपूर्वक पालन करना कोई हमारे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर से सीखे।” युधिष्ठिर को अपनी ओर दीन-भाव से आते देखकर कौरव सेना भी अचम्भे से बंध गई। बहुत से मूर्ख यह कह कर खुशी मनाने लगे कि हमारे बल को देखकर धर्मराज की अकल ठिकाने लग गई है। वह देखो दांतों में तिनका दबाये हुये वे हमारी शरण में चले आ रहे हैं। युधिष्ठिर सीधे भीष्म पितामह के पास पहुँचे। उन्होंने बड़ी श्रद्धापूर्वक उनके पैर छूकर अपने हाथ जोड़े फिर कहा- “महाबली पितामह, हम लोग आपसे युद्ध करने जा रहे हैं, मैं इसके लिए आपकी आज्ञा और आशीर्वाद मांगने आया हूँ।" यह सुनकर पितामह गद्गद हो गये, उन्होंने युधिष्ठिर को कलेजे से लगा लिया और कहा- “बेटा युधिष्ठिर, तुम्हारा धर्मभाव देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। यदि तुम न आते तो मैं तुम्हें अवश्य शाप देता, पर अब मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ और युद्ध करने के लिए आज्ञा भी देता हूँ। मैं कौरव दरबार का एक सेवक होने के नाते अनुशासन में बंध कर भले ही उनके लिए लडूँ पर मैं यह जानता हूँ कि न्याय तुम्हारे साथ है। मेरा आशीर्वाद है तुम्हारी जय हो।” |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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