नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. माधुरी दासी-पनघट
मेरी स्वामिनी व्रजेश्वरी इतनी सीधी, सरला हैं कि उनको समझाना कठिन होता है मुझे कि मेरी उपस्थिति में उनको श्रम नहीं करना चाहिये। वे मुझे सखी कहकर ही संतुष्ट हो जातीं तब भी एक बात थी, वे तो मुझसे पूछने लगती हैं, मेरी बात ऐसे मान लेती हैं जैसे स्वामिनी वे न हों, मैं होऊँ और उनकी चलने दूँ तो मेरी सब सेवा वे स्वयं करें। उनकी सेवा का अवसर ही मुझे कितना कम मिल पाता है। रोहिणी रानीजी आयी हैं, तब से और कठिनाई हो गयी है। वे सब कार्य स्वयं ही कर लेना चाहती हैं। उनके मुख से बहिन और जीजी सुनकर तो धरती में गढ़ जाने को जी करता है। कोई काम करने लगो और आकर हाथ पकड़ेंगी- 'बहिन, तुम रहने दो! तुम बहुत श्रम कर चुकीं। इतना श्रान्त होने की तो कोई आवश्यकता नहीं है।' जैसे हम सब बैठी ही रहने को बनी हैं। श्रम करने केवल रानीजी का स्वत्व है। इस श्रम में, सेवा में जो सुख है, स्वर्ग में भी तो किसी को सुलभ नहीं होगा। लेकिन रानीजी जब सुनें! वे मथुरा के राजभवन से आयी हैं, पता नहीं वहाँ कैसी परिपाटी होगी। सहस्र-सहस्र दासियों में सेवा का किसी को अवकाश ही कितना मिलता होगा। यहाँ हम कुछ करने लगें तो रानीजी को लगता है, हम बहुत थक गयी होंगी। वे बहुत बड़ी हैं, उनको उत्तर भी तो नहीं दिया जा सकता। कठिनाई कम है हमारी? व्यवस्था का पूरा सञ्चालन उन्होंने ले लिया है। उनके चरण-पकड़कर यह दासी कुछ सेवा माँगकर पा जाती है, यही बड़ी कृपा इस पर उनकी। 'यमुना जल लाने की सेवा स्वामिनी मुझे दे दें!' मैंने चरण पकड़े- वे कृपामयी अस्वीकार तो नहीं करतीं; किेंतु कह दिया 'बहिन! बहुत यमुना जल लगता है। तुम अकेली तो नहीं ला सकोगी। एक काम अवश्य मेरा कर दो! कन्हाई सखाओं के साथ पुलिन-पर ही आजकल खेलता है। सब बालक चपल हैं। इन पर दृष्टि रखना। ये जल के समीप न जायें और अधिक आतप में न रहें। मैं कम ही उधर आ पाती हूँ।' |
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