भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शक्ति का स्वरूप
सुषुप्ति में जैसे समस्त जीवों के व्यवहार विलीन रहते हैं, वैसे ही प्रलयकाल में माया के भीतर ही समस्त जीव और उनके कर्म समस्त प्रपंच अभेदभाव से उसी माया में विलीन रहता है। उसी शक्ति के ही निर्वचनीय सम्बन्ध से निर्गुण-निर्लिप्त चिच्छक्ति जगत् का बीज अर्थात कारणरूप भी हो जाती है। उस परमतत्त्व के आश्रित रहने वाली माया शक्ति उसे आवृत करती है, इसलिये ही ब्रह्मशक्ति सदोष समझी जाती है। माया शक्ति मे भी विद्या और अविद्या यह दो भेद रहते हैं। उनमें विद्या विशुद्ध सत्त्वात्मिका होने से स्वाश्रय को व्यामोहित नहीं करती। अतः वह निर्दोष है। तम से अभिभूत सत्त्वयुक्त अविद्या स्वाश्रय की व्यामोहकारिणी है, इसीलिये ब्रह्म सदोष है। चैतन्य के सम्बन्ध से तद्गत चिदाभास ही चेतन प्रधान होने के कारण निमित्तकर्ता है और उसी शक्ति का प्रपंच रूप में परिणाम होता है, अतः वही समवायकारण भी है। कुछ लोग उस माया शक्ति को ही तप कहते हैं। परमेश्वर उसी से विश्व का निर्माण करते हैं- ‘‘सा तपस्तप्त्वेदं सर्व समसृजत्।’’ और कोई शाखी उसे हीम तम कहते हैं। ‘‘तम आसीत् तमसा गूढमग्रे।’’ तम अज्ञान से ही आवृत होकर परम-तत्त्व प्रपंचरूप में प्रतीत होता है। उसे ही कोई ज्ञान, माया, प्रधान, प्रकृति एवं अजाशक्ति भी कहते हैं। उसी को कोई विमर्श, कोई अविद्या भी कहा करते हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज