आठवाँ अध्याय
उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा
पाठक! विद्योपार्जन के समय का बड़ा भाग तो कृष्ण और बलराम का वृन्दावन के वनों में पशुओं को चराने और वंशी बजाने में व्यतीत हुआ। उस समय उनकी प्राण रक्षा के लिए उनकी वास्तविक अवस्था छिपाना आवश्यक था। पर जब कृष्ण को अपने वंश का पता लगा तो उन्होंने कुछ विद्याध्ययन करना आवश्यक समझा क्योंकि उसके बिना अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर सकते थे। क्षत्रिय वंशावतंस दोनों राजकुमारों ने इस कमी को पूरा करने का संकल्प कर लिया और वहीं से उन प्यारे गोपों को विदा कर दिया जिन्होंने बचपन में उनकी रक्षा की थी। अपने धर्म पिता नन्द और उनके संबंधियों से बड़े हौसले से आज्ञा माँगी और अपनी धर्म माता यशोदा को ममत्व और प्रेम के भरे संदेश भेजे। इसी तरह सब साथियों से गले मिलकर विदा हुए, जिनके साथ उन्होंने कैद के दिन काटे थे और जिनकी संगति में सुख की नींद सोये थे। यह विचार मानो उस समय के राजघरानों में साधारणतः अनुकूल था। अपने धर्म का ज्ञान होते ही उन सब सम्बन्धों पर लात मार बैठे। नन्द और यशोदा का स्नेह, गोपों का प्रेम और खेल-कूद उनके चित्त को चलायमान न कर सका।
कृष्ण की शिक्षा के विषय में पुराणों से बस इतना पता मिलता है कि कृष्ण के गुरु का नाम सन्दीपन था जो अवन्तीपुर[1] नामक स्थान का रहने वाला था।
- पुराण कहता है कि कृष्ण ने सन्दीपन से केवल 24 दिन शिक्षा पाई और इसी अल्पकाल में वे सारी शास्त्रविद्या में निपुण हो गए। पर महाभारत में श्रीकृष्ण की शिक्षा का स्थान-स्थान पर वर्णन आया है जिससे विदित होता है कि कृष्ण अपने समय के परम विद्वान और वेदशास्त्र के ज्ञाता भी थे।
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