योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अट्ठाईसवाँ अध्याय
भीष्म की पराजय
इसके पश्चात लड़ाई छिड़ गई। दस दिन तक कुरुसेना लड़ती रही। कुरुसेना का सेनापति भीष्म अपने काल का विख्यात योद्धा था। पाण्डवों की सेना में यदि कोई उसकी बराबरी का था तो वह केलव अर्जुन था। दूसरे में ऐसी शक्ति नहीं थी कि भीष्म के बाणों के आगे ठहरता। पाण्डव अच्छी तरह से जानते थे कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे तब तक जय पाना असंभव है, इसलिए वे अनेक प्रकार से भीष्म पर आक्रमण करते थे, पर हर बार भाग खड़े होते थे। तीन दिन की लड़ाई में भीष्म ने अनगिनत प्राणों को नष्ट किया। रक्त की धारा बह चली। जिधर वह जा पड़ता था उधर ही बात की बात में सैकड़ों और हजारों खेत रहते थे। कृष्ण को इन तीन दिनों की लड़ाई में आभास हो गया कि अर्जुन जी से नहीं लड़ता और भीष्म पर वार करने से झिझकता है। उन्हें विश्वास था कि अर्जुन के अतिरिक्त और किसी में यह पुरुषार्थ नहीं जो भीष्म को नीचा दिखावे और जब तक भीष्म जीवित है तब तक पाण्डवों का मनोरथ सफल होना कठिन है। इसलिए तीसरे दिन की लड़ाई में जब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि अर्जुन जी तोड़कर नहीं लड़ता और भीष्म पर धावा करते समय मुँह मोड़ता है तो वे मारे क्रोध के रथ से उतर पड़े और शस्त्र हाथ में लेकर यह कहते हुए भीष्म की ओर चले कि जिसको जाना हो वह चला जाय, जो मरने से डरता है वह पीछे रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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