योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 115

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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अट्ठाईसवाँ अध्याय
भीष्म की पराजय


जिस दिन प्रातःकाल युद्ध आरम्भ हुआ उसके पहले दिन सायंकाल युधिष्ठिर ने कवच और शस्त्रादि उतार कुरुसेना की ओर प्रस्थान किया। उसके भाई तथा उसकी सेना आश्चर्य में थी कि महाराज यह क्या कर रहे हैं, शस्त्र-रहित होकर शत्रु की ओर क्यों जा रहे हैं? शत्रु-दल भी चकित था कि युधिष्ठिर यह क्या कर रहे हैं। उनके भाई उनके पीछे दौड़े और उनसे उनके इस विचित्र कार्य का कारण पूछने लगे। उनके साथ कृष्ण भी थे। जब युधिष्ठिर ने अर्जुन की बातों का कुछ उत्तर न दिया तो कृष्ण ने अर्जुन आदि भाइयों को समझाया कि युद्ध से पहले युधिष्ठिर अपने कुल के ज्येष्ठ भीष्म और आचार्य द्रोण से लड़ाई करने की आज्ञा लेने चले हैं, क्योंकि शास्त्र ऐसा आदेश देते हैं। युधिष्ठिर अपने भाइयों को साथ लिए भीष्म के डेरे में पहुँचे और उनके चरणों पर सिर धर दिया और लड़ाई की आज्ञा माँगी। भीष्म युधिष्ठिर की इस नीति पर बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया, "पुत्र! मैं प्रसन्नचित्त से तुम्हें लड़ाई करने की आज्ञा देता हूँ। मेरी समझ में तू सत्य मार्ग पर है। परमात्मा तेरी वृद्धि करे।" भीष्म का आशीष लेकर युधिष्ठिर अपने आचार्य द्रोण के पास गये और इसी तरह उनसे आज्ञा प्राप्त की। फिर कृपाचार्य इत्यादि के पास से होते हुए अपने डेरे पर लौटे।

इसके पश्चात लड़ाई छिड़ गई। दस दिन तक कुरुसेना लड़ती रही। कुरुसेना का सेनापति भीष्म अपने काल का विख्यात योद्धा था। पाण्डवों की सेना में यदि कोई उसकी बराबरी का था तो वह केलव अर्जुन था। दूसरे में ऐसी शक्ति नहीं थी कि भीष्म के बाणों के आगे ठहरता। पाण्डव अच्छी तरह से जानते थे कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे तब तक जय पाना असंभव है, इसलिए वे अनेक प्रकार से भीष्म पर आक्रमण करते थे, पर हर बार भाग खड़े होते थे। तीन दिन की लड़ाई में भीष्म ने अनगिनत प्राणों को नष्ट किया। रक्त की धारा बह चली। जिधर वह जा पड़ता था उधर ही बात की बात में सैकड़ों और हजारों खेत रहते थे।

कृष्ण को इन तीन दिनों की लड़ाई में आभास हो गया कि अर्जुन जी से नहीं लड़ता और भीष्म पर वार करने से झिझकता है। उन्हें विश्वास था कि अर्जुन के अतिरिक्त और किसी में यह पुरुषार्थ नहीं जो भीष्म को नीचा दिखावे और जब तक भीष्म जीवित है तब तक पाण्डवों का मनोरथ सफल होना कठिन है। इसलिए तीसरे दिन की लड़ाई में जब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि अर्जुन जी तोड़कर नहीं लड़ता और भीष्म पर धावा करते समय मुँह मोड़ता है तो वे मारे क्रोध के रथ से उतर पड़े और शस्त्र हाथ में लेकर यह कहते हुए भीष्म की ओर चले कि जिसको जाना हो वह चला जाय, जो मरने से डरता है वह पीछे रहे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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