योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बीसवाँ अध्याय
दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन
इस पर कृष्ण बोले, "हे दुर्योधन! तुमने जो कहा वह सत्य है। यद्यपि तुम पहले आये पर मेरी दृष्टि तो पहले अर्जुन पर ही पड़ी। इसके अतिरिक्त अर्जुन तुम से छोटा है। मुझे दोनों की ही सहायता करनी है। एक ओर मेरी सारी सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला बिना किसी शस्त्र के हूँ। मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि इस लड़ाई में मैं शस्त्र नहीं चलाऊँगा। अब मैं पहले अर्जुन को अवसर देता हूँ कि वह इनमें से एक को चुन ले कि क्या वह मेरी सारी सेना को लेना पसन्द करता है या मुझे। यदि उसने मुझ अकेले की सहायता चाही तो मेरी सारी सेना तुम्हारी सहायता को प्रस्तुत है और यदि उसने मेरी सेना पसन्द की तो मैं अकेला तुम्हारी सेवा करने को उपस्थित हूँ।" दुर्योधन ने इस बात को पसन्द किया। इसलिए जब अर्जुन से पूछा गया तो उसने उत्तर दिया कि मुझे महाराज कृष्णचन्द्र की ही सहायता चाहिए। मुझे उनकी सेना नहीं चाहिए। अर्जुन के ऐसा कहने पर दुर्योधन भीतर ही भीतर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कृष्णचन्द्र की सारी सेना सहायता के लिए ले जाना स्वीकार कर लिया। बलराम के साथ भी दुर्योधन ने यही चाल चली, पर उन्होंने कहा कि मैं किसी पक्ष को सहायता देना नहीं चाहता। जब दुर्योधन विदा हो चुका तो कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, "हे राजपुत्र! तूने मेरी व्यक्तिगत सहायता को मेरी सारी सेना से क्यों श्रेष्ठ समझा?" अर्जुन ने कहा, "आपकी सारी सेना से युद्ध करने के लिए तो मैं अकेला काफी हूँ। संसार में एक बुद्धिमान पुरुष लाख मूर्खों से बढ़कर शक्ति रखता है। आपने इस युद्ध में शंख को हाथ में न लेने की प्रतिज्ञा की है, अतएव मेरी इच्छा है कि आप मेरे रथ के सारथी बनें। यदि मेरे पास आप जैसे सारथी हों तो फिर किसमें सामर्थ्य है जो मेरा सामना कर सके और मुझसे बचकर चला जाये।" कृष्ण जी ने ऐसा करना स्वीकार कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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