योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
चौदहवाँ अध्याय
खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण
स्मरण रखना चाहिए कि पाण्डव उनके फुफेरे भाई थे। पिता की गद्दी पर उनका पूरा स्वत्व था, पर धृतराष्ट्र के अन्याय के कारण वे मारे-मारे फिरते थे। अन्त में जब उन्हें पृथक राज्य दिया भी गया, तो ऐसा जिसे स्वत्व में लाने में उन्हें अपनी ही जान बचाना मुश्किल था। द्रौपदी के स्वयंवर में उनकी अवस्था देखकर कृष्ण ने ठान लिया था कि उनको उनका अधिकार दिलवा दिया जाये। हस्तिनापुर आकर उनकी भलाई के लिए उन्हें यही हितकर दीख पड़ा कि इसके लिए वह बहुत जोर न दें और जो कुछ धृतराष्ट्र ने दिया है, उसे स्वीकार कर लें। इन्हीं कारणों से जब पाण्डवों ने खांडवप्रस्थ को लेना स्वीकार कर लिया तो कृष्ण ने उनका साथ दिया। उस वन को काटने तथा बसाने में उनकी सहायता की। यहाँ तक कि वे तब तक द्वारिका नहीं गए जब तक इन्द्रप्रस्थ अच्छी तरह बस नहीं गया और पाण्डवों का वहाँ पूरा अधिकार नहीं जम गया। पाठक गण! आप समझ गये होंगे, कि सुभद्रा के विवाह के विषय में कृष्ण ने क्यों अर्जुन का पक्ष लिया था? उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अर्जुन के साथ ऐसा संबंध बनाया जाय, जिसमें बँधकर सारे यादववंशी पाण्डवों की सहायता करने पर विवश हो जायें। इसलिए उन्होंने ऐसी युक्ति लगाई जिससे अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हो ही गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज