योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 77

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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चौदहवाँ अध्याय
खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण


महाभारत से मालूम होता है कि पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ से कुछ दूरी पर एक सुन्दर वन था जिसको खांडवप्रस्थ कहते थे। इसमें बनैले पशुओं के अतिरिक्त अनेक असभ्य जातियाँ निवास करती थीं जिसको उस समय तक किसी ने नहीं जीता था। यह वन बहुत बड़ा था। इस वन में रहने वाली जातियाँ बड़ी वीर और लड़ाकू थीं। पाण्डवों को उस वन का अधिकार देने में धृतराष्ट्र की यही नीति थी कि इस पर स्वत्व जमाने में या तो स्वयं पाण्डवगण अपने प्राण नष्ट कर देंगे या उनको मारकर एक ऐसे प्रदेश को राज्य में मिला देंगे, जिसे उनके पहले कोई भी अपने अधीन नहीं कर सका था। वास्तव में धृतराष्ट्र की यह अनीति और अन्याय था कि अपने पुत्रों को तो अच्छी बस्ती और उपजाऊ भूमि दे और पाण्डवों को पथरीला और उजाड़ वन मिले। धर्मवीर युधिष्ठिर स्वयं पर धृतराष्ट्र का इतना प्रभाव मानते थे कि उसने इस बात पर तनिक भी आशंका नहीं की और प्रसन्नचित्त होकर इस प्रान्त को अंगीकार कर लिया। पाँचों भाइयों में इतना प्रेम था, कि किसी ने भी युधिष्ठिर के स्वीकार करने पर नाक भी नहीं चढ़ायी। बात भी सत्य है, जब युधिष्ठिर स्वीकार कर चुका तो उसके छोटे भाई जो उसके आज्ञाकारी थे, कैसे शंका करते? जब वह भाग विभाजित हुआ तो कृष्ण[1] यहाँ उपस्थित थे। उन्होंने पाण्डवों को यह कहकर शान्त कर दिया कि भाइयों में परस्पर विग्रह न भड़कने पावे।

स्मरण रखना चाहिए कि पाण्डव उनके फुफेरे भाई थे। पिता की गद्दी पर उनका पूरा स्वत्व था, पर धृतराष्ट्र के अन्याय के कारण वे मारे-मारे फिरते थे। अन्त में जब उन्हें पृथक राज्य दिया भी गया, तो ऐसा जिसे स्वत्व में लाने में उन्हें अपनी ही जान बचाना मुश्किल था। द्रौपदी के स्वयंवर में उनकी अवस्था देखकर कृष्ण ने ठान लिया था कि उनको उनका अधिकार दिलवा दिया जाये। हस्तिनापुर आकर उनकी भलाई के लिए उन्हें यही हितकर दीख पड़ा कि इसके लिए वह बहुत जोर न दें और जो कुछ धृतराष्ट्र ने दिया है, उसे स्वीकार कर लें। इन्हीं कारणों से जब पाण्डवों ने खांडवप्रस्थ को लेना स्वीकार कर लिया तो कृष्ण ने उनका साथ दिया। उस वन को काटने तथा बसाने में उनकी सहायता की। यहाँ तक कि वे तब तक द्वारिका नहीं गए जब तक इन्द्रप्रस्थ अच्छी तरह बस नहीं गया और पाण्डवों का वहाँ पूरा अधिकार नहीं जम गया।

पाठक गण! आप समझ गये होंगे, कि सुभद्रा के विवाह के विषय में कृष्ण ने क्यों अर्जुन का पक्ष लिया था? उनकी हार्दिक इच्छा थी कि अर्जुन के साथ ऐसा संबंध बनाया जाय, जिसमें बँधकर सारे यादववंशी पाण्डवों की सहायता करने पर विवश हो जायें। इसलिए उन्होंने ऐसी युक्ति लगाई जिससे अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हो ही गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो द्रुपद के यहाँ से पाण्डवों के साथ आये थे।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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