योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बत्तीसवाँ अध्याय
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
गान्धारी के बारे में यह प्रसिद्ध था कि वह बड़ी समझ वाली, बुद्धिमती और धर्मात्मा स्त्री थी। इसके संबंध में जो उल्लेख महाभारत में हैं उनसे इसे धैर्य, बुद्धिमत्ता और गम्भीरता के पूरे प्रमाण मिलते हैं, परन्तु कौन माता है जो अपने समस्त वंश को इस तरह अपने ही नेत्रों के सामने खून में लिपटा हुआ देखकर अपने धैर्य को स्थिर रख सके। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि कुरुक्षेत्र की भूमि में अपने पुत्रों के मृतक शरीरों को देखकर उसने कृष्ण को शाप दिया और उनको इस बरबादी और रक्तपात का जिम्मेदार ठहराया। अन्त में कृष्ण के द्वारा चाचा और भतीजों में मिलाप हो गया। भतीजों ने बड़ी नम्रता से चाचा और चाची के चरणों पर सिर रख दिये। युधिष्ठिर पर तो इतना दुख छाया हुआ था कि उसने राज्य करने से इन्कार कर दिया। उसके भाई समझाते थे परन्तु वह नहीं मानता था। यहाँ तक कि स्वयं धृतराष्ट्र और गान्धारी ने भी युधिष्ठिर को बहुत कुछ समझाया, परन्तु उसने अपने मन्तव्य पर दृढ़ता प्रकट की और यही कहते रहे कि भाई-बंधुओं और बड़ों के रक्त में हाथ रँगकर अब राज्य करने में मुझे क्या सुख हो सकता है! मेरे लिए तो अब यही शेष है कि तप करके अपने पापों का प्रायश्चित्त करूँ और अवशिष्ट जीवन परमात्मा की याद में अर्पण करके अपनी आत्मा को दुख व क्लेश से बचाऊँ। अन्त में जब सब कह चुके और कुछ भी असर नहीं हुआ तो फिर कृष्ण ने उन्हें कुछ व्यंग्य-वचन सुनाये। कभी नर्मी और कभी गर्मी से काम लेते हुए उन्होंने अंत में क्षात्र-धर्म के नाम पर युधिष्ठिर से अपील की और उसको वश में कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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