योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
प्रस्तावना
पाठक गण! सन 1896 ई. में मैंने शिवाजी के जीवनचरित्र की भूमिका में कृष्ण महाराज के जीवन चरित्र लिखने का प्रण किया था, उसके पश्चात सन 1896 व 97 ई. के भयंकर अकाल ने इस देश को आ घेरा और अनाथरक्षा के काम से मुझे इतना अवकाश भी प्राप्त न हुआ कि मैं इस पुस्तक की तैयारी के लिए पुस्तकों का अवलोकन करता। सन 1897 ई. के सितम्बर में बीमारी ने मुझे आ घेरा और अप्रैल सन 1898 ई. तक पलंग ही मेरे नसीब में रहा। अपनी बीमारी के अतिरिक्त कई प्रकार के कष्ट और भी आ पड़े, जिससे बहुत काल तक पुस्तकावलोकन का अवसर न मिला तो भी सितम्बर सन 1898 ई. में मैंने ‘महर्षि स्वामी दयानन्द और उनकी शिक्षा’ लिखकर आपकी भेंट की। उसके पश्चात मैं इस पुस्तक की तैयारी में लगा रहा, सुतराँ आज मैं ढाई वर्ष के परिश्रम का फल आपके चरणों में उपस्थित करता हूँ, परन्तु यह नहीं कह सकता कि यह भेंट आपके योग्य है या उस महान पुरुष की हैसियत और पद के योग्य है जिसका नाम इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर लिखा है, तो भी यह कह सकता हूँ कि यदि मेरी इस पुस्तक से आपके चित्त में श्रीकृष्ण की जीवनी के संबंध में खोज की इच्छा उत्पन्न होवे और आप स्वयं स्वतंत्र छान-बीन से कृष्ण महाराज की जीवनी की घटनाओं की खोज करें तो मैं समझूँगा कि मेरा परिश्रम सफल हुआ और यदि इस पुस्तक से किसी आर्य समुदाय को यह निश्चय हो जाए कि जो लांछन श्रीकृष्ण की जीवनी पर लगाये जाते हैं वह निर्मूल, असत्य और झूठे हैं तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा। मैंने भूमिका में उन पुस्तकों के नाम लिख दिये हैं जिनसे मैंने इस पुस्तक के लिए घटना संबंधी बातों को चुना है। परन्तु उन पुस्तकों के अतिरिक्त मैंने दो बंगाली महाशयों द्वारा लिखित पुस्तकों से भी कुछ लाभ उठाया है और इसलिए मेरा कर्तव्य है कि उन्हें धन्यवाद दूँ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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