योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 109

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पच्चीसवाँ अध्याय
कृष्ण के दूतत्त्व का अन्त


दरबार से बाहर जाकर दुर्योधन ने अपने भाई-बन्धुओं से राय मिलाई और कृष्ण को कैद करने की ठानी, पर यह बात पूरी नहीं होने पाई थी कि इसकी सूचना कृष्ण के साथी सात्यकि को मिल गई। उसने एक ओर तो अपनी सेना को तैयार होने की आज्ञा दी और दूसरी ओर कृष्ण को यह खबर सुना दी। फिर उनकी आज्ञा से धृतराष्ट्र को भी सूचित किया गया। सारा दरबार यह बात सुनकर दंग रह गया, क्योंकि प्राचीन काल में दूत को कैद करना महापाप समझा जाता था। इसीलिए किसी को इसका विचार भी नहीं था कि दुर्योधन ऐसी नीचता पर कमर बाँध लेगा।

धृतराष्ट्र लज्जा और क्रोध से काँपने लगा। उसने दुर्योधन को बुलाकर बहुत धिक्कारा। कृष्ण दरबार से विदा होकर कुन्ती के पास आये और उसको सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा पूछने लगा कि अब क्या करना चाहिए। कुन्ती ने कृष्ण के द्वारा अपने पुत्रों को संदेश कहला भेजा। सर्वप्रथम युधिष्ठिर को संदेश देते हुए कहा, "पुत्र! तेरा यश दिन-दिन घट रहा है क्योंकि तू अहंकार में फँसा हुआ उस पुरुष के समान है जो यथार्थ अर्थ समझे बिना वेदों के शब्दों को रट लेता है इसलिए विद्वान नहीं कहलाता। तू धर्म के एक पक्ष को ही देख रहा है। तू बिलकुल भूल गया कि परमात्मा ने उस वर्ण के लिए किस धर्म का उपदेश किया है जिसमें तूने जन्म लिया है। क्षत्रिय इसीलिए उत्पन्न होता है कि वह केवल अपने बाहुबल पर भरोसा रखता हुआ प्रजा की रक्षा करे। सुरक्षित प्रजा के पुण्य कर्मो के फल का छठा भाग राजा के लेखे में गिना जाता है। राजा को अपना धर्म पालन करने से देवता पद मिलता है और पाप से वह नरकगामी होता है। धर्मानुसार चारों वर्णो का न्याय करना तथा प्रत्येक अपराधी को दण्ड देना राजा का महान कर्त्तव्य है। इससे उसको मोक्ष मिलता है।

"जिस काल में राजा, प्रजा से नियम का अच्छी तरह पालन कराता है उस समय को कृतयुग कहते हैं। ऐसे राज्य को महान सुख की प्राप्ति होती है। याद रखना चाहिए कि समय राजा के अधीन होता है।[1] राजा समय के अधीन नहीं होता। जिस राजा के समय में त्रेता युग हुआ उसको भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पर वह स्वर्ग को बहुत अच्छी तरह नहीं भोग सकता। इसी तरह द्वापर युग का राजा इससे भी कम, और कलियुग लाने वाला राजा तो पाप में डूबा हुआ दुख भोगता है और बहुत काल के लिए नरक को जाता है। सत्य यह है कि राजा के पापों का उसकी प्रजा पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है और ऐसे ही प्रजा के पापों का फल राजा को भी भोगना पड़ता है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. राजा कालस्य कारणम् -महाभारत

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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