योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पच्चीसवाँ अध्याय
कृष्ण के दूतत्त्व का अन्त
धृतराष्ट्र लज्जा और क्रोध से काँपने लगा। उसने दुर्योधन को बुलाकर बहुत धिक्कारा। कृष्ण दरबार से विदा होकर कुन्ती के पास आये और उसको सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा पूछने लगा कि अब क्या करना चाहिए। कुन्ती ने कृष्ण के द्वारा अपने पुत्रों को संदेश कहला भेजा। सर्वप्रथम युधिष्ठिर को संदेश देते हुए कहा, "पुत्र! तेरा यश दिन-दिन घट रहा है क्योंकि तू अहंकार में फँसा हुआ उस पुरुष के समान है जो यथार्थ अर्थ समझे बिना वेदों के शब्दों को रट लेता है इसलिए विद्वान नहीं कहलाता। तू धर्म के एक पक्ष को ही देख रहा है। तू बिलकुल भूल गया कि परमात्मा ने उस वर्ण के लिए किस धर्म का उपदेश किया है जिसमें तूने जन्म लिया है। क्षत्रिय इसीलिए उत्पन्न होता है कि वह केवल अपने बाहुबल पर भरोसा रखता हुआ प्रजा की रक्षा करे। सुरक्षित प्रजा के पुण्य कर्मो के फल का छठा भाग राजा के लेखे में गिना जाता है। राजा को अपना धर्म पालन करने से देवता पद मिलता है और पाप से वह नरकगामी होता है। धर्मानुसार चारों वर्णो का न्याय करना तथा प्रत्येक अपराधी को दण्ड देना राजा का महान कर्त्तव्य है। इससे उसको मोक्ष मिलता है। "जिस काल में राजा, प्रजा से नियम का अच्छी तरह पालन कराता है उस समय को कृतयुग कहते हैं। ऐसे राज्य को महान सुख की प्राप्ति होती है। याद रखना चाहिए कि समय राजा के अधीन होता है।[1] राजा समय के अधीन नहीं होता। जिस राजा के समय में त्रेता युग हुआ उसको भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पर वह स्वर्ग को बहुत अच्छी तरह नहीं भोग सकता। इसी तरह द्वापर युग का राजा इससे भी कम, और कलियुग लाने वाला राजा तो पाप में डूबा हुआ दुख भोगता है और बहुत काल के लिए नरक को जाता है। सत्य यह है कि राजा के पापों का उसकी प्रजा पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है और ऐसे ही प्रजा के पापों का फल राजा को भी भोगना पड़ता है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राजा कालस्य कारणम् -महाभारत
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