योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
आठवाँ अध्याय
उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा
कंस की वह कार्यवाही लोगों के सामने फिर घूमने लगी जो उसने वसुदेव और देवकी के बच्चों का वध करने के लिए की थी। कृष्ण के माता और पिता के आनन्द में सारी सभा आ मिली। यादव वंश के सब छोटे-बड़े एक-एक करके कृष्ण के पैरों पर आ पड़े और सबने उनसे राज्य-तिलक ग्रहण करने की प्रार्थना की। सारी सभा इन शब्दों से गूँज उठी कि कृष्ण मथुरा की गद्दी पर बैठें और राज्य करें। युवा कृष्ण के लिए यह कड़ी परीक्षा का समय था। एक ओर राजपाट और सारे ऐश्वर्य उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे। सारे भाई-बन्धु और प्रजा उनसे आग्रह कर रही थी कि कृष्ण राजपाट अंगीकार करें। दूसरी ओर उनके हृदय में न्याय और धर्म के उच्च भाव एकत्र हो रहे थे। उनके भीतर से यह आवाज आई कि मुझे इस गद्दी का अधिकार नहीं लेना। मैंने कंस को इसलिए नहीं मारा कि उसका राजपाट स्वयं भोगूँ। यदि मैंने इस समय गद्दी स्वीकार कर ली तो संसार को यह कहने का अवसर मिलेगा कि राज्य के लालच में आकर मैंने कंस का वध किया, पर मेरे हृदय में इसका कभी विचार भी नहीं हुआ। इस विचार के आते ही कृष्ण ने ठान लिया कि नहीं, मैं गद्दी नही लूँगा। गद्दी उग्रसेन की है जिसे दुष्ट कंस ने अन्याय और बल से छीना था। उग्रसेन ने भी बहुत अनुरोध किया कि मैं तो इससे प्रसन्न हूँ कि आप गद्दी पर बैठें। पर कृष्ण ने एक न सुनी और सबके सामने उग्रसेन को फिर गद्दी पर बिठा दिया। जो लोग कंस के अत्याचारों से डरकर देश छोड़कर चले गये थे उन सबको बुला लिया गया। सारांश यह कि सब प्रबन्ध ठीक कर कृष्ण ने अपने भाई बलराम सहित विद्या के निमित्त काशी[1] जाने का निश्चय किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हम नहीं कह सकते कि कृष्ण के समय वर्तमान काशी या बनारस को वही गौरव प्राप्त था जो उसे पौराणिक समय में मिला। प्राचीन ग्रन्थों में काशी का वर्णन आया है पर हमारे पास उसका कोई प्रमाण नहीं कि उससे तात्पर्य इसी ‘शहर बनारस’ का है। पुराणों के विरचित होने के समय तो काशी अपनी पूर्ण उन्नति की चोटी पर पहुँचा हुआ था। इसलिए संभव है कि उन पुराणों के रचयिता पण्डितों ने अपने जमे हुए विचार के अनुसार यह लिख दिया हो कि श्रीकृष्ण भी हो न हो विद्योपार्जन के लिए काशी ही गए। पर यथार्थ तो यह जान पड़ता है कि वह विद्या के निमित्त काशी नहीं गए।
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