योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अठारहवाँ अध्याय
कृष्ण-पाण्डव मिलन
युधिष्ठिर और अर्जुन इत्यादि की बुरी दशा देखकर वे बड़े क्रुद्ध हुए, पर जब द्रौपदी के सामने गये तो उसने विलाप के द्वारा पृथ्वी-आकाश एक कर दिये। वह रो-रोकर अपने पति और दूसरे सम्बन्धियों को बुरा-भला कहने लगी। उसने अपने अपमान की कथा सुनाकर भीम और अर्जुन की वीरता पर आक्षेप किया और अन्त में यहाँ तक कह दिया कि मेरे लिए तो ये सब संबंधी और मित्र मर ही गये, क्योंकि जब शत्रुओं ने भरी सभा में मेरा अपमान किया तो किसी ने मेरी सहायता नहीं की। द्रौपदी के इस विलाप को सुनकर कृष्ण ने उसे समक्ष प्रतिज्ञा की, "हे कृष्णा! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरे शत्रुओं से इस अनीति का बदला लूँगा, तुझे तेरा राजपाट पुनः दिलाकर राज-सिंहासन पर बिठाऊँगा। हे द्रौपदी! तू रो मत। चाहे आकाश टूट पड़े, धरती फट जावे, पर मेरा प्रण मिथ्या न होगा।" इस प्रकार उसे सम्बोधन कर कृष्णचन्द्र महाराज युधिष्ठिर के पास आये और उनको बहुत कुछ उपदेश किया। वे उनके समक्ष जुआ खेलने की हानि बताते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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