योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बाईसवाँ अध्याय
कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म
जब युधिष्ठिर ने देखा कि कृष्ण अपने संकल्प में दृढ़ है, तो उसने उनको जाने की आज्ञा दी तथा अपनी ओर से पूरा अधिकार भी दिया कि जो शर्त आप स्वीकार कर आयेंगे वह मुझे सर्वथा स्वीकार होगी। कृष्ण ने प्रस्थान करने के पहले फिर युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश दिया ताकि युधिष्ठिर सन्धि की आशा में अपनी तैयारियों से असावधान न हो जायें और दुर्योधन को सहज ही में लड़ाई जीतने का अवसर मिले। उस उपदेश में कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि आजीवन ब्रह्मचारी रहना क्षत्रिय का धर्म नहीं। क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना भी महापाप है। युद्ध में प्राण देने से क्षत्रिय सीधा स्वर्ग जाता है। क्षत्रिय के लिए कायर होना पाप है। मुझे विश्वास है कि दुर्योधन कभी सन्धि के लिए राजी नहीं होगा। मैं दुर्योधन को अच्छी तरह जानता हूँ। देखो! उसने आप और आपके भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया है। मैं प्रत्येक प्रकार से दुर्योधन और उसके सहायकों को समझाने का प्रयत्न करूँगा, परन्तु मेरी आत्मा कहती है कि वह एक भी बात नहीं मानेगा। लड़ाई अवश्य करनी ही पड़ेगी। इसलिए हे राजन, तुझे चाहिए कि अच्छी तरह से लड़ाई की तैयारियाँ करता रह और अपने धर्म से विमुख न हो। कृष्ण के इस कथन को सुनकर भीम और अर्जुन के चित्त में यह भय उत्पन्न हुआ कि कहीं कृष्ण अपने कठारे वचन से काम न बिगाड़ दें। तब तो सन्धि असंभव हो जायगी। इसलिए दोनों ने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कृष्ण से विनयपूर्वक कहा कि जहाँ तक संभव हो, आप दुर्योधन के साथ नम्रता का बर्ताव करें, क्योंकि हम कदापि लड़ाई करना नहीं चाहते। यदि दुर्योधन कुछ थोड़े ग्राम भी हमको दे दें तो हम उसी पर संतोष करके दिन काट लेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज