योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 98

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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बाईसवाँ अध्याय
कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म


जब संजय विदा होकर चला गया तो महाराज कृष्ण ने धृतराष्ट्र के पास जाने का विचार प्रकट किया। श्रीकृष्ण जब चलने के लिए तैयार हुए तो युधिष्ठिर को बड़ी चिन्ता हुई। उसे यह विचार हुआ कि दुष्ट दुर्योधन कहीं कृष्ण को हानि न पहुँचाये। इसलिए उसने कृष्ण को बहुत समझाया कि वे वहाँ न जायें। यहाँ तक कहा कि आपके बिना मुझे चक्रवर्ती राज्य और स्वर्ग भी स्वीकार नहीं। परन्तु कृष्ण ने उनकी एक न मानी और युधिष्ठिर को कहा कि मेरा हस्तिनापुर जाना आवश्यक है, इसलिए कि यदि मुझे इस काम में सफलता नहीं मिली और दुर्योधन ने सन्धि के प्रस्ताव को न माना तो पीछे से कोई हमें दोष नहीं दे सकेगा कि हमने सन्धि नहीं की।

जब युधिष्ठिर ने देखा कि कृष्ण अपने संकल्प में दृढ़ है, तो उसने उनको जाने की आज्ञा दी तथा अपनी ओर से पूरा अधिकार भी दिया कि जो शर्त आप स्वीकार कर आयेंगे वह मुझे सर्वथा स्वीकार होगी। कृष्ण ने प्रस्थान करने के पहले फिर युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश दिया ताकि युधिष्ठिर सन्धि की आशा में अपनी तैयारियों से असावधान न हो जायें और दुर्योधन को सहज ही में लड़ाई जीतने का अवसर मिले। उस उपदेश में कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि आजीवन ब्रह्मचारी रहना क्षत्रिय का धर्म नहीं। क्षत्रिय के लिए भिक्षा माँगना भी महापाप है। युद्ध में प्राण देने से क्षत्रिय सीधा स्वर्ग जाता है। क्षत्रिय के लिए कायर होना पाप है। मुझे विश्वास है कि दुर्योधन कभी सन्धि के लिए राजी नहीं होगा। मैं दुर्योधन को अच्छी तरह जानता हूँ। देखो! उसने आप और आपके भाइयों के साथ कैसा बर्ताव किया है। मैं प्रत्येक प्रकार से दुर्योधन और उसके सहायकों को समझाने का प्रयत्न करूँगा, परन्तु मेरी आत्मा कहती है कि वह एक भी बात नहीं मानेगा। लड़ाई अवश्य करनी ही पड़ेगी। इसलिए हे राजन, तुझे चाहिए कि अच्छी तरह से लड़ाई की तैयारियाँ करता रह और अपने धर्म से विमुख न हो।

कृष्ण के इस कथन को सुनकर भीम और अर्जुन के चित्त में यह भय उत्पन्न हुआ कि कहीं कृष्ण अपने कठारे वचन से काम न बिगाड़ दें। तब तो सन्धि असंभव हो जायगी। इसलिए दोनों ने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कृष्ण से विनयपूर्वक कहा कि जहाँ तक संभव हो, आप दुर्योधन के साथ नम्रता का बर्ताव करें, क्योंकि हम कदापि लड़ाई करना नहीं चाहते। यदि दुर्योधन कुछ थोड़े ग्राम भी हमको दे दें तो हम उसी पर संतोष करके दिन काट लेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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