योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ
जब महाराज ने यह इच्छा प्रकट की तो सारे धनिक वर्ग, मंत्रिपरिषद, पंडितों एवं विद्वानों ने इसका अनुमोदन किया और कहा कि आप प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ को करने का सामर्थ्य रखते हैं। पर फिर भी युधिष्ठिर को संतोष नहीं हुआ और उसने इसका अन्तिम निर्णय कृष्ण की सम्मति पर रखा तथा कृष्ण को बुलाने के लिए दूत भेजा। जब वे आये तो युधिष्ठिर उनकी ओर देखकर कहने लगा, "हे कृष्ण! मेरे चित्त में राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई है, पर मेरी इच्छा मात्र से तो यह यज्ञ पूरा नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि यज्ञ कैसे किया जाता है। केवल वही पुरुष इसे कर सकता है जिसकी शक्ति और बल असीम हो, जिसका राज्य सारी पृथ्वी पर हो और जो समस्त राजाओं का राजा हो। मुझे सब लोग इस यज्ञ को करने की सम्मति तो देते हैं, पर मैंने सारी बातों का निर्णय आप पर रखा है। कोई तो केवल संकोच से मुझे इस बात की सम्मति देते हैं और उसकी कठिनाइयों का विचार नहीं करते। कोई अपने लाभ के विचार से ऐसी सम्मति देते हैं और कोई अन्य मुझे प्रसन्न करने के लिए कहते हैं। पर आप इन बातों से ऊपर हैं। आपने काम और क्रोध को जीत लिया है। अतः आपकी राय ही सर्वोपरि होगी। अब आप मुझे ऐसी सम्मति दें जिससे संसार का और मेरा भला हो।" श्रीकृष्ण ने इस पर उत्तर में कहा, "हे राजन! आप सब कुछ जानते हैं और प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ को करने के योग्य हैं, परन्तु जो भी कुछ मेरी समझ में आता है वह निवेदन करता हूँ।" इसके पश्चात अपने समय के क्षत्रियों की दुर्गति का वर्णन करते हुए कहा कि क्षत्रियों में राजसूय यज्ञ करने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आई है। केवल वही पुरुष राजसूय यज्ञ कर सकता है जो सारे राजाओं का महाराजा हो और चक्रवर्ती राज्य का स्वामी हो। मगध देश का राजा जरासंध स्वेच्छाचारी और स्वतंत्र है। अनेक राजा-महाराजा उसके अधीन हैं तथा उसके कारागार में बन्द पड़े हैं। जब तक जरासंध का विनाश नहीं हो जाता तब तक आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते। जरासंध ऐसा प्रबल और प्रतापी है कि सभी देशों के राजा उसके सामने सिर झुकाते हैं। यहाँ तक कि हमें भी उसी के भय से अपना देश त्यागना पड़ा। सारे देशों के वीर योद्धा उसकी सेना में एकत्र हैं फिर यह कैसे संभव है कि उसके जीते जी आप इस यज्ञ को कर सकें। यह किसी प्रकार भी संभव नहीं कि वह अपने होते हुए आपको राजसूय यज्ञ करने दे। अतएव यदि आपकी इच्छा यज्ञ करने की ही है तो पहले उसको पराजित कर उन राजाओं को छुटकारा दिलाइये जो उसके बन्दीगृह में हैं। इससे आपको कई पुण्य होंगे। प्रथम तो उस पापी का विनाश कर अनेक असहाय बन्दियों को जीवनदान देने का पुण्य होगा, दूसरे आपको महान यश प्राप्त होगा और आप निर्भय होकर यज्ञ कर सकेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत में इसकी कथा इस प्रकार है कि एक दिन नारद ऋषि युधिष्ठिर के दरबार में आये और उन्हें महाराज हरिश्चन्द्र की कथा सुनाकर कहा कि किस प्रकार हरिश्चन्द्र ने राजसूय यज्ञ किया और उन्हें महाराज इन्द्र के दरबार में आसन मिला। यह सुनकर युधिष्ठिर को भी यह यज्ञ करने की इच्छा हुई।
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