योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 79

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पंद्रहवाँ अध्याय
राजसूय यज्ञ


जब युधिष्ठिर का शासन और पाण्डवों का राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर जा पहुँचा और पाँचों भाइयों ने अपने बाहुबल से सारे राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर लिया तो चारों दिशाओं में पाण्डवों की तूती बोलने लगी। कोई भी उनकी बराबरी का दावा नहीं कर सका। उनका राजकोष धन-सम्पदा से परिपूर्ण हो गया। सेना की भी यही दशा थी कि देश के शूरवीर सब आ-आकर इनकी सेना में भरती हो गये। इनकी राजसभा और राजप्रसाद ऐसे थे जैसे अन्यत्र कहीं नही थे। ऐसी दशा में युधिष्ठिर और उसके भाइयों की यह इच्छा[1] हुई कि राजसूय यज्ञ करके महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की जाये।

जब महाराज ने यह इच्छा प्रकट की तो सारे धनिक वर्ग, मंत्रिपरिषद, पंडितों एवं विद्वानों ने इसका अनुमोदन किया और कहा कि आप प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ को करने का सामर्थ्य रखते हैं। पर फिर भी युधिष्ठिर को संतोष नहीं हुआ और उसने इसका अन्तिम निर्णय कृष्ण की सम्मति पर रखा तथा कृष्ण को बुलाने के लिए दूत भेजा। जब वे आये तो युधिष्ठिर उनकी ओर देखकर कहने लगा, "हे कृष्ण! मेरे चित्त में राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई है, पर मेरी इच्छा मात्र से तो यह यज्ञ पूरा नहीं हो सकता। आप जानते हैं कि यज्ञ कैसे किया जाता है। केवल वही पुरुष इसे कर सकता है जिसकी शक्ति और बल असीम हो, जिसका राज्य सारी पृथ्वी पर हो और जो समस्त राजाओं का राजा हो। मुझे सब लोग इस यज्ञ को करने की सम्मति तो देते हैं, पर मैंने सारी बातों का निर्णय आप पर रखा है। कोई तो केवल संकोच से मुझे इस बात की सम्मति देते हैं और उसकी कठिनाइयों का विचार नहीं करते। कोई अपने लाभ के विचार से ऐसी सम्मति देते हैं और कोई अन्य मुझे प्रसन्न करने के लिए कहते हैं। पर आप इन बातों से ऊपर हैं। आपने काम और क्रोध को जीत लिया है। अतः आपकी राय ही सर्वोपरि होगी। अब आप मुझे ऐसी सम्मति दें जिससे संसार का और मेरा भला हो।"

श्रीकृष्ण ने इस पर उत्तर में कहा, "हे राजन! आप सब कुछ जानते हैं और प्रत्येक प्रकार से इस यज्ञ को करने के योग्य हैं, परन्तु जो भी कुछ मेरी समझ में आता है वह निवेदन करता हूँ।"

इसके पश्चात अपने समय के क्षत्रियों की दुर्गति का वर्णन करते हुए कहा कि क्षत्रियों में राजसूय यज्ञ करने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आई है। केवल वही पुरुष राजसूय यज्ञ कर सकता है जो सारे राजाओं का महाराजा हो और चक्रवर्ती राज्य का स्वामी हो। मगध देश का राजा जरासंध स्वेच्छाचारी और स्वतंत्र है। अनेक राजा-महाराजा उसके अधीन हैं तथा उसके कारागार में बन्द पड़े हैं। जब तक जरासंध का विनाश नहीं हो जाता तब तक आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते। जरासंध ऐसा प्रबल और प्रतापी है कि सभी देशों के राजा उसके सामने सिर झुकाते हैं। यहाँ तक कि हमें भी उसी के भय से अपना देश त्यागना पड़ा। सारे देशों के वीर योद्धा उसकी सेना में एकत्र हैं फिर यह कैसे संभव है कि उसके जीते जी आप इस यज्ञ को कर सकें। यह किसी प्रकार भी संभव नहीं कि वह अपने होते हुए आपको राजसूय यज्ञ करने दे। अतएव यदि आपकी इच्छा यज्ञ करने की ही है तो पहले उसको पराजित कर उन राजाओं को छुटकारा दिलाइये जो उसके बन्दीगृह में हैं। इससे आपको कई पुण्य होंगे। प्रथम तो उस पापी का विनाश कर अनेक असहाय बन्दियों को जीवनदान देने का पुण्य होगा, दूसरे आपको महान यश प्राप्त होगा और आप निर्भय होकर यज्ञ कर सकेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत में इसकी कथा इस प्रकार है कि एक दिन नारद ऋषि युधिष्ठिर के दरबार में आये और उन्हें महाराज हरिश्चन्द्र की कथा सुनाकर कहा कि किस प्रकार हरिश्चन्द्र ने राजसूय यज्ञ किया और उन्हें महाराज इन्द्र के दरबार में आसन मिला। यह सुनकर युधिष्ठिर को भी यह यज्ञ करने की इच्छा हुई।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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