योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्नीसवाँ अध्याय
महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा
एक बार बलराम ने यह प्रस्ताव किया कि युधिष्ठिर इत्यादि अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वनवास में रहें पर उनके सम्बन्धी और मित्रगण दुर्योधन पर चढ़ाई करके उसने उनका देश लौटा लें और उसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को प्रबन्ध के लिए सौंप दें। कृष्ण ने उत्तर में निवेदन किया कि जो कुछ आप कहते हैं वह सम्भव तो है पर पाण्डवों को यह कब स्वीकार होगा कि वे दूसरे के परिश्रम का फल खुद भोंगे और इस प्रकार अपने क्षत्रिय धर्म पर बट्टा लगायें। कृष्ण के इस कथन पर युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि मुझे राज्य की इतनी इच्छा नहीं जितना धर्म का आग्रह है। यदि मुझे स्वर्ग का राज्य भी मिले तो भी मैं सच्चाई से नहीं हट सकता। थोड़े-से जीवन के लिए मैं अपना प्रण भंग नहीं कर सकता। युधिष्ठिर और उसके भाइयों ने बड़े कष्ट उठाये और विपत्ति तथा आपदाओं को सहन किया। अपनी प्रिय धर्मपत्नी का अपमान भी अपनी आँखों से देखा। निम्न समझी जाने वाली सेवा करना पसन्द किया, पर अपने वचन का पूरे तौर से निर्वाह किया और तेरह वर्ष तक राजपाट की ओर ध्यान तक न किया। प्रिय पाठक! लीजिए तेहरवाँ वर्ष समाप्त होता है, और महाभारत युद्ध की नींव पड़ने लगती है। आइये, इस महान युद्ध की कथा सुनिये। इस लड़ाई का प्रथम दृश्य आज महाराज विराट के महलों में दिखाई दे रहा है। भारतवर्ष के विख्यात राजा-महाराजा और विद्वान ब्राह्मण यहाँ एकत्र हैं और सोच-विचार कर रहे हैं कि युधिष्ठिर का राज्य उसे दिलाने के लिए अब क्या कार्यवाही करनी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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