योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 43

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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7. पुराणों की प्राचीनता


ऐसे अवसर पर किसी का यह कहना कि जब कुछ न बन पड़ा तो वैराग्य का आश्रय ले लिया, बहुत उचित जान पड़ता है। प्रायः लोग ईसाई धर्म की इसीलिए प्रशंसा करते हैं कि यदि कोई तेरे एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा भी उसकी ओर फेर दे, किन्तु उनसे पूछो कि इस पर कभी किसी ने अमल भी किया है अथवा स्वयं ईसाई मतावलम्बी भी इसका कहाँ तक आचरण करते हैं? प्रकृति इसके विरुद्ध शिक्षा देती है। ये बातें केवल कहने की हैं, कोई सामर्थ्य वाला पुरुष इस कायरता की क्रिया में नहीं जा सकता। जो लोग कृष्ण की शिक्षा पर अनुचित समालोचना करके उसको महाभारत के युद्ध तथा उससे जो हानि पहुँची है उसका उत्तरदाता ठहराते हैं, वे तनिक विचारें तो सही कि उनके दर्शन का क्या अर्थ है। यदि उनके घर में कोई चोर या डाकू आ घुसे, तो क्या वे इस अवसर पर दया का भाव दिखावेंगे, या कोई विचारशील दयावान उस चोर को अपना माल ले जाने की आज्ञा देगा, अथवा स्वहित का विचार कर उस व्यवहार विरुद्ध कार्य के लिए उसे हानि पहुँचाने में तत्पर हो जाएगा? क्या धर्म की यही आज्ञा थी कि अर्जुन रणक्षेत्र में भाग खड़ा होता और इस प्रकार उन सब कर्त्तव्यों पर पानी फेर देता, जिन पर आशा करके युधिष्ठिर तथा अन्य महाराज सेना सहित सम्मिलित हुए थे? क्या उस समय कृष्ण का यही कर्त्तव्य था कि अर्जुन को भागता देख खुद भी उसके साथ भाग जाते?

हम नहीं समझते कि जो लोग कृष्ण की इस प्रकार की अयोग्य आलोचना करते हैं वे धर्म के रक्षक या प्रचारक कैसे कहला सकते हैं। उनका धर्म केवल मौखिक है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनका धर्म मनुष्य समाज के उपयुक्त है या नहीं। उन्हें इसी से मतलब है कि उनका व्याख्यान सुनने वालों को वह रसपूर्ण प्रतीत हो। हमारा तो विश्वास है कि दया तथा वैराग्य के इस झूठे विचार ने ही हिन्दुओं का सर्वनाश कर दिया है और उनकी श्रेष्ठता को मिट्टी में मिला दिया। न उनको इस लोक का छोड़ा न परलोक का। यदि अब भी भारतवासी इन विश्वासों के पंजे से निकलना न चाहें जबकि आधुनिक पश्चात्य शिक्षा तथा गीता उनको इस बात की शिक्षा देती है, तो ऐसी हालत में उनकी उन्नति का विचार एक भ्रम ही है जिसका पूरा होना कदापि संभव नहीं। इन बातों पर विश्वास रखने वाले न लौकिक उन्नति कर सकते हैं न परलौकिक। कारण कि आध्यात्मिक संसार में भी उसी की पहुँच है जो मनुष्य उस लोक में हर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आध्यात्मिक उन्नति के सोपान पर पैर रखता है। आध्यात्मिक संसार में इन लोगों की पहुँच नहीं हो सकती जो इस संसार के नियमों और परीक्षाओं पर लात मारते हैं, किन्तु सफलता उन्हें मिलती है जो नियमानुसार अनेक साधनाओं से अपनी आत्मा को इस योग्य बनाते हैं जिससे यह सदविचार तथा पवित्रता से उस परब्रह्म के चरण-कमलों में स्वयं को समर्पित करते हैं।

इन पृष्ठों में हम एक पवित्रात्मा महान पुरुष का जीवन-वृत्तान्त लिखते हैं जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओं का नाश किया है। रहा यह कि क्या कृष्ण ने अद्वैत की शिक्षा दी या द्वैत की[1] यह ऐसा प्रश्न है जिस पर हम इस पुस्तक के दूसरे भाग में विचार करेंगे।

नवम्बर, 1900 ई. -लाजपतराय

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात कृष्ण के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक है या भिन्न।

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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