योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
7. पुराणों की प्राचीनता
हम नहीं समझते कि जो लोग कृष्ण की इस प्रकार की अयोग्य आलोचना करते हैं वे धर्म के रक्षक या प्रचारक कैसे कहला सकते हैं। उनका धर्म केवल मौखिक है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि उनका धर्म मनुष्य समाज के उपयुक्त है या नहीं। उन्हें इसी से मतलब है कि उनका व्याख्यान सुनने वालों को वह रसपूर्ण प्रतीत हो। हमारा तो विश्वास है कि दया तथा वैराग्य के इस झूठे विचार ने ही हिन्दुओं का सर्वनाश कर दिया है और उनकी श्रेष्ठता को मिट्टी में मिला दिया। न उनको इस लोक का छोड़ा न परलोक का। यदि अब भी भारतवासी इन विश्वासों के पंजे से निकलना न चाहें जबकि आधुनिक पश्चात्य शिक्षा तथा गीता उनको इस बात की शिक्षा देती है, तो ऐसी हालत में उनकी उन्नति का विचार एक भ्रम ही है जिसका पूरा होना कदापि संभव नहीं। इन बातों पर विश्वास रखने वाले न लौकिक उन्नति कर सकते हैं न परलौकिक। कारण कि आध्यात्मिक संसार में भी उसी की पहुँच है जो मनुष्य उस लोक में हर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आध्यात्मिक उन्नति के सोपान पर पैर रखता है। आध्यात्मिक संसार में इन लोगों की पहुँच नहीं हो सकती जो इस संसार के नियमों और परीक्षाओं पर लात मारते हैं, किन्तु सफलता उन्हें मिलती है जो नियमानुसार अनेक साधनाओं से अपनी आत्मा को इस योग्य बनाते हैं जिससे यह सदविचार तथा पवित्रता से उस परब्रह्म के चरण-कमलों में स्वयं को समर्पित करते हैं। इन पृष्ठों में हम एक पवित्रात्मा महान पुरुष का जीवन-वृत्तान्त लिखते हैं जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओं का नाश किया है। रहा यह कि क्या कृष्ण ने अद्वैत की शिक्षा दी या द्वैत की[1] यह ऐसा प्रश्न है जिस पर हम इस पुस्तक के दूसरे भाग में विचार करेंगे। नवम्बर, 1900 ई. -लाजपतराय |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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