योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
प्रस्तावना
उर्दू वास्तव में भारतवासियों की भाषा का नाम है, बल्कि किसी-किसी अवसर पर उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। मुसलमानी राज्य में मुसलमानी साहित्य का जोर था और इसलिए पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों की भाषा में फारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता थी। जब कभी उनको गूढ़ विषयों के प्रकट करने के लिए विशेष शब्दों की आवश्यकता पड़ती थी तो वे मुसलमानी साहित्य से सहायता लेते थे। जब अंग्रेजी राज्य हुआ तो उस हिन्दुस्तानी भाषा में अंग्रेजी के शब्द आने आरम्भ हुए और इसी तरह हिन्दुओं की भाषा में संस्कृत व हिन्दी के शब्दों का प्रचलन बढ़ने लगा। कोई कारण नहीं मालूम होता कि क्यों हिन्दू लोग अपने धार्मिक विचारों को प्रकट करने के लिए मुसलमानी साहित्य की भाषा का प्रयोग करें और हिन्दी व संस्कृत के शब्दों के स्थान में फारसी व अरबी के शब्द तलाश करें। भाषा वह है जो बोली जाए। बस, जब समय के हेर-फेर से हिन्दुओं की बोलचाल में अंग्रेजी, हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का चलन हो गया तो कोई कारण मालूम नहीं होता, कि वे लेख भी उसी भाषा में न लिखे जाएँ जिसको वे बोलते हैं। भेद इतना ही है कि अंग्रेजी सरकार फारसी के अक्षरों को हिन्दुस्तानी भाषा में लिखने के लिए प्रयोग करती है और सरकारी स्कूलों में इस हिन्दुस्तानी भाषा की शिक्षा फारसी अक्षरों में दी जाती है। इस कारण लाचारी से उन्हें फारसी अक्षरों का प्रयोग करना पड़ता है। हम प्रामाणिक उर्दू जानने वाले विद्वानों के विचारों के लेखों में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग बता सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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