योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तेईसवाँ अध्याय
कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन
सारांश यह कि कुन्ती को सम्बोधन करके और फिर उसकी आज्ञा लेकर कृष्णचन्द्र दुर्योधन के महल में गये। दुर्योधन और उसके सभासदों ने इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। फिर कृष्ण से भोजन की प्रार्थना की। जब कृष्ण ने उसे अस्वीकार किया तो दुर्योधन ने पूछा, "महाराज! आप मेरा अन्न-जल क्यों नहीं ग्रहण करते? मैंने अनेक प्रकार से आपकी सेवा करनी चाही और अच्छे-अच्छे भोजन तैयार कराये, परन्तु आप स्वीकार नहीं करते। आप मेरे प्यारे संबंधी है और दोनों पक्ष वालों के मित्र हैं, इसलिए आपके तो दोनों पक्ष समान हैं।" कृष्ण ने उत्तर में कहा, "हे दुर्योधन, दूतों के लिए यही आज्ञा है कि जब तक उनका दूतत्त्व सफल न हो तब तक राजा की पूजा स्वीकार न करें। इसलिए जब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं होऊँगा तब तक आपके महल में अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकता। हाँ, सफलता होने पर मैं हर तरह से राजी हूँ।" इस पर दुर्योधन बोला, "महाराज! आपको ऐसा बर्ताव करना उचित नहीं। हम आपका पूजन इसलिए करते हैं, कि आप हमारे संबंधी हैं। आपका काम बने या न बने, हमारा अन्न स्वीकार कीजिए, जिससे हमारे चित्त में जो सेवा का भाव है वह बना रहे। आपसे हमें कोई विरोध नहीं, फिर आप क्यों हमारी सेवा स्वीकार नहीं करते?" कृष्ण ने जवाब दिया, "मेरा यह सिद्धान्त नहीं कि किसी को प्रसन्न रखने के अभिप्राय से या क्रोध से अथवा किसी लाभ के हेतु मैं धर्म-मार्ग छोड़ दूँ। मनुष्य किसी के घर का भोजन तब ही खा सकता है जब उसके हृदय में खिलाने वाले के प्रति प्रेम हो अथवा उस पर आपत्तिकाल हो। अब सत्य तो यह है कि मेरे हृदय में न तो तेरे लिए तनिक भी प्रेम है और न मुझ पर ही अपत्ति आई है।"[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सम्प्रीति भोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः। न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्।। उद्योग पर्व 91/25
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