योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 102

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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तेईसवाँ अध्याय
कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन


"आप अर्जुन और भीम से कहें कि जिस दिन के लिए क्षत्रिय स्त्रियाँ पुत्र जनती हैं, वह दिन आ पहुँचा। यदि इस समय तुमसे कुछ न बन सका तो सारा जगत तुमको तुच्छ समझेगा। जिस दिन तुमने कोई निन्दनीय कार्य किया उसी दिन मुझसे तुम्हारा नाता टूट जायेगा।" हे कृष्ण! आप माद्री के पुत्रों से भी कहें, "यथार्थ सुख वह है, जो निज बाहुबल से उपार्जित किया जाये।" क्षत्रिय पुत्र के लिए वह वस्तु सुखदायक नहीं हो सकती जो उसने अपने बाहुबल से प्राप्त नहीं की है। अर्जुन से मेरा अन्तिम संदेश यह कहना कि उसे वही करना धर्म है जो द्रौपदी कहे।" द्रौपदी का नाम लेते ही कुन्ती के नेत्रों से फिर आँसू निकल पड़े। उसके अपमान का दृश्य उसके सामने घूमने लगा। इसके बाद कृष्ण कुन्ती को सम्बोधन करने लगे। उन्होंने अभागे पाण्डवों का नमस्कार माता के पवित्र चरणों में निवेदन किया। उनके प्रेम-पूरित संदेश को माता के कर्ण-गोचर किया। पुत्रों के धर्म भाव, उनकी वीरता, सत्यता तथा दृढ़ता की अनेक कहानियाँ सुनाई। धर्म, ज्ञान और दर्शन के उपदेशों से उसके संतप्त हृदय को ठंडा किया। सारांश यह कि कृष्ण ने अपनी वाणी व चतुराई से उसके दुख को दूर कर दिया। उसके भीतर की बुझी हुई आशायें पुनः लहलहा उठीं। वीर क्षात्र बाला का सारा क्रोध कृष्ण की मधुर वाणी के आगे मोम की तरह पिघल गया। वह अन्त में कहने लगी, "हे कृष्ण! जो आपको भला मालूम दे वही करें। मुझे आपकी बुद्धिमत्ता और चातुर्य पर पूरा विश्वास है। आप वही करेंगे जो मुझे और पुत्रों को हितकर होगा।"

सारांश यह कि कुन्ती को सम्बोधन करके और फिर उसकी आज्ञा लेकर कृष्णचन्द्र दुर्योधन के महल में गये। दुर्योधन और उसके सभासदों ने इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। फिर कृष्ण से भोजन की प्रार्थना की। जब कृष्ण ने उसे अस्वीकार किया तो दुर्योधन ने पूछा, "महाराज! आप मेरा अन्न-जल क्यों नहीं ग्रहण करते? मैंने अनेक प्रकार से आपकी सेवा करनी चाही और अच्छे-अच्छे भोजन तैयार कराये, परन्तु आप स्वीकार नहीं करते। आप मेरे प्यारे संबंधी है और दोनों पक्ष वालों के मित्र हैं, इसलिए आपके तो दोनों पक्ष समान हैं।"

कृष्ण ने उत्तर में कहा, "हे दुर्योधन, दूतों के लिए यही आज्ञा है कि जब तक उनका दूतत्त्व सफल न हो तब तक राजा की पूजा स्वीकार न करें। इसलिए जब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं होऊँगा तब तक आपके महल में अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकता। हाँ, सफलता होने पर मैं हर तरह से राजी हूँ।" इस पर दुर्योधन बोला, "महाराज! आपको ऐसा बर्ताव करना उचित नहीं। हम आपका पूजन इसलिए करते हैं, कि आप हमारे संबंधी हैं। आपका काम बने या न बने, हमारा अन्न स्वीकार कीजिए, जिससे हमारे चित्त में जो सेवा का भाव है वह बना रहे। आपसे हमें कोई विरोध नहीं, फिर आप क्यों हमारी सेवा स्वीकार नहीं करते?"

कृष्ण ने जवाब दिया, "मेरा यह सिद्धान्त नहीं कि किसी को प्रसन्न रखने के अभिप्राय से या क्रोध से अथवा किसी लाभ के हेतु मैं धर्म-मार्ग छोड़ दूँ। मनुष्य किसी के घर का भोजन तब ही खा सकता है जब उसके हृदय में खिलाने वाले के प्रति प्रेम हो अथवा उस पर आपत्तिकाल हो। अब सत्य तो यह है कि मेरे हृदय में न तो तेरे लिए तनिक भी प्रेम है और न मुझ पर ही अपत्ति आई है।"[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सम्प्रीति भोज्यान्यन्नानि आपद्भोज्यानि वा पुनः। न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्।। उद्योग पर्व 91/25

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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