विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
तृतीय प्रकरण
रुक्मिणी के साथ भगवान् का विनोद
रुक्मिणीकृत स्तव
इस समय रुक्मिणी जी के मन में शायद यह बुद्धि आ गयी कि सब रानियों में भगवान को मैं ही अधिक प्रिय हूँ। इस कारण भगवान रुक्मिणी जी से हँसकर कहने लगे ‘तुमने शिशुपाल आदि राजाओं को क्यों नहीं वरा, वे तो वंश, धन, सुंदरता और उदारता में तुम्हारे पिता के समान ही थे। हम तो राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आये हैं। बलवान पुरुषों के साथ वैर बाँधने वाले हैं और राजा ययाति के शाप से राज्य के भी अधिकारी नहीं है। हमारा आचार अस्पष्ट होने के कारण समझ में नहीं आता है, हमारी स्त्रियाँ दुख पाती हैं क्योंकि हम उनके वश में नहीं रहते। हम निर्धन हैं और दरिद्री पुरुषों को प्रिय हैं, दरिद्री पुरुषों से प्रेम करने वाले हैं। इस कारण हे सुमध्ये! धन आदि संपत्ति से युक्त पुरुष मेरी सेवा नहीं करते। विवाह और मैत्री ये समान बल, जाति, कुल, ऐश्वर्य और सुंदरता वालों में ही हो सकते हैं। हे रुक्मिणी! तुमने नारदादि भिक्षुओं से हमारी स्तुति सुनकर मुझ गुणहीन को वृथा वर लिया। अतः तुम पुनः किसी योग्य क्षत्रिय को वर लो। यदि कहो कि आप मुझे क्यों वर लाये? तो सुनो। तुम्हारा भाई रुक्मी और शिशुपालादि अत्यंत अभिमानी हो गये थे और मुझसे द्वेष करते थे। उनका गर्व दूर करने के लिए ही मैं तुम्हें लाया था। मैं तो उदासीन हूँ, निजानन्द मिलने से पूर्ण मनोरथ हूँ और इसी कारण स्त्री, पुत्र तथा अन्यान्य संपत्तियों की इच्छा नहीं करता, केवल साक्षीरूप से उनके साथ रहता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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