विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
तृतीय प्रकरण
रुक्मिणी के साथ भगवान् का विनोद
रुक्मिणीकृत स्तव
इन मर्मघाती वचनों को सुनकर रुक्मिणी जी अपार शोक सागर में डूब गयीं। उन्हें शंका हुई कि क्या भगवान् मुझको त्याग देंगे? उनकी आँखों से आँसू बहने लगे, कण्ठ रुक गया और वे मूर्च्छित होकर इस प्रकार पृथ्वी पर गिर गयीं जैसे केले का वृक्ष पवन से उखड़कर धड़ाम से नीचे गिर जाता है। भगवान अपने विनोद का उलटा प्रभाव देखकर कुछ भयभीत हुए और रुक्मिणी जी का अपने में प्रेमबंधन देखकर उठे तथा उन्हें संभालकर पलंग पर बिठाया और उनके मस्तक पर अपना हाथ रखा। उनको समझाने का उपाय करने लगे। जब रुक्मिणी जी को कुछ होश हुआ तो भगवान ने उनके आँसू पोंछे और कहा- ‘हे सुन्दरि! मैं तुम्हारा रोष देखना चाहता था और तुम्हारी वह वाणी सुनना चाहता था कि जिस समय तुम्हारी त्योरी चढ़ी हुई हो, ओठ प्रेम के कोप से फड़क रहे हों और नेत्र कुछ लाल-लाल हो रहे हों। यदि कहो कि इस प्रकार के कलह में आपको क्या सुख मिलता है? तो हे सुन्दरि! गृहस्थों को गृहस्थ में यह भी लाभ है कि वे किसी समय घर में प्रियतमा के साथ हास्य विनोद कर लेते हैं।’ इस प्रकार भगवान के समझाने पर रुक्मिणी जी ने जान लिया कि यह सब भाषण केवल भगवान का विनोदमात्र था! अतः वे भगवान् की स्तुति के व्याज से उसका प्रत्युत्तर देने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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