भागवत स्तुति संग्रह
उपोद्घात
महाराज युधिष्ठिर ने लड़ाई के पीछे तीन अश्वमेध यज्ञ किये किंतु उनके हृदय का शोक न मिटा। इस बीच विदुर जी और राजा धृतराष्ट्र भी घर छोड़कर वन को चले गये। उन्होंने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया। उधर द्वारिका से भी समाचार आया कि यादववंश का गृह-कलह से आपस में लड़-भिड़कर संहार हो गया तथा भगवान श्रीकृष्ण भी अपने लोक को पधार गये। इन सब सूचनाओं से महाराज युधिष्ठिर को ज्ञात हुआ कि कलियुग का आगमन हो गया है। अतः वे परम वैराग्यमुक्त होकर परीक्षित को राज्य देकर सब भाइयों और द्रौपदी के साथ महायात्रा को चले गये। महाराज परीक्षित बड़े धर्मात्मा और शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने दिग्विजय भी किया था। एक समय उन्होंने कुरुक्षेत्र यात्रा करते समय एक अद्भुत दृश्य देखा। वहाँ एक वृद्ध वृषभ उनके दृष्टिगोचर हुआ, जिसके तीन पैर टूटे हुए थे, उसके साथ एक गाय थी जो अति दीन और कृश हो रही थी। यह वृद्ध वृषभ तो धर्म था और गाय पृथ्वी। इनके पास एक काले रंग का पुरुष राजचिह्न धारण किये खड़ा था। यह कलि था। [यहाँ यह ध्यान देने योग्य विषय है कि जिस-जिस स्थल में यह कहा है कि पृथ्वी गौरूप विषय है कि जिस-जिस स्थल में यह कहा है कि पृथ्वी गौरूप देखी गयी, वहाँ यह समझना चाहिए कि पृथ्वी का अभिमानी देवता उस रूप में था] ये दोनों आपस में यह वार्ता कर रहे थे कि अब कलियुग आ गया है, भविष्य में पृथ्वी शूद्रप्राय राजाओं से भोगी जायगी, देवताओं का हविर्भाग नष्ट हो जाएगा, इन्द्र के न बरसने पर प्रजा अन्न के बिना दुःखी रहेगी, ब्राह्मण कुकर्मी होंगे तथा लोभवश सेवानिवृत्ति करेंगे, और सब प्राणी शास्त्र के विधिनिषेध को न मानकर मनमाना आचरण करेंगे, धर्म के चार चरण तप, शौच, दया और सत्य में से पहले तीन नष्ट होने पर केवल सत्य कुछ समय तक बचा रहेगा और अन्त में यह भी नष्ट हो जाएगा। राजा परीक्षित ने यह संवाद सुनकर उस दंडधारी कलि की ओर देखा और वे धनुष चढ़ाकर उसको मारने के लिए उद्यत हुए। तब व कलि राज चिह्नों को त्याग कर, दंड के समान राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया। दीनवत्सल परीक्षित ने उसका वध नहीं किया। कलि ने अंत में यह प्रार्थना की कि आप मेरे रहने के लिए स्थान बतला दीजिए, जहाँ आपकी आज्ञा से मैं निश्चिन्त होकर रह सकूँ; क्योंकि जहाँ-जहाँ मैं जाता हूँ वहीं मेरे वध के लिए हाथ में धनुष-बाण लिए आप मुझे दीखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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