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नागपत्नियों द्वारा की हुई स्तुति
इस लीला से प्रकट होता है कि जिसको भगवान् चाहते हैं उसको स्वयं बुला लेते हैं, जैसे कि उन्होंने मुरली की ध्वनि से गोपियों को अपने पास बुला लिया था। भगवती श्रुति भी कहती हैं ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तन् स्वाम्’ [1] बात ठीक ही है। भगवान का दर्शन कितना ही प्रयत्न करो नहीं हो सकता,[2] नारद जी के प्रति भगवान् ने ऐसा ही कहा[3]था। यह निश्चय है कि इन्द्रियों से या स्थूल शरीर से भगवत् प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो बाहर की वस्तुओं को ही विषय करते हैं। श्रुति में कहा है- ‘पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयं भूस्तस्मात्परांङ् पश्यति नान्तरात्मन्’[4] यह श्रुति स्पष्ट रूप से कहती है कि बहिर्मुख हो जाना इन्द्रियों का स्वभाव है। इस नियम का उल्लंघन हो ही नहीं सकता क्योंकि जिसका जो स्वभाव है वह उसको नहीं छोड़ सकता। जब इन्द्रियाँ या स्थूल शरीर भगवान् को अपना विषय नहीं कर सकते तो क्या मन या बुद्धि उन्हें अपना विषय कर सकती हैं? श्रुतियों में यह भी कहा है ‘न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमः’।[5] किन्तु यह श्रुति निर्विशेषब्रह्मपरक है, न कि सगुणब्रह्मपरक। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि जब मन काम, संकल्प इत्यादि से दूषित होता है तब भगवान को अपना विषय नहीं कर सकता। जब यही मन शुद्ध संस्कृत और वासनाशून्य हो जाता है तब भगवदाकार बन जाता है।
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