गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। गुण और कर्म के विभागानुसार चार वर्ण मैंने उत्पन्न किये हैं, उनका कर्त्ता होने पर भी मुझे तू अविनाशी-अकर्ता जानना। न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। मुझे कर्म स्पर्श नहीं करते हैं। मुझे इनके फल की लालसा नहीं है। इस प्रकार जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं, वे कर्म के बन्धन में नहीं पड़ते। टिप्पणी- क्योंकि मनुष्य के सामने, कर्म करते हुए अकर्मी रहने का सर्वोत्तम दृष्टांत है। और सबका कर्त्ता ईश्वर ही है, हम निमित्तमात्र ही हैं, तो फिर कर्त्तापन का अभिमान कैसे हो सकता है ? एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वेरपि मुमुक्षुभि:। ऐसे जानकर पूर्वकाल में मुमुक्षु व्यक्तियों ने कर्म किये हैं। इससे तू भी पूर्वज जैसे सदा से करते आये हैं वैसे कर। किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:। कर्म क्या है, अकर्म क्या है, इस विषय में समझदारों को भी मोह हुआ है। उस कर्म के विषय में मैं तुझे यथार्थ रूप से बतलाऊंगा उसे जानकर तू अशुभ से बचेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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