गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
चौथा अध्याय
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्एं बोद्धव्यं च विकर्मण:। कर्म, निषिद्धकर्म और अकर्म का भेद जानना चाहिए। कर्म की गति गूढ़ है। कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। कर्म में जो अकर्म देखता है और अकर्म में जो कर्म देखता है, वह लोगों में बुद्धिमान गिना जाता है। वह योगी है और वह संपूर्ण कर्म करने वाला है। टिप्पणी- कर्म करते हुए भी जो कर्त्तापन का अभिमान नहीं रखता, उसका कर्म अकर्म है और जो कर्म का बाहर से त्याग करते हुए भी मन के महल बनाता ही रहता है, उसका अकर्म कर्म है। जिसे लकवा हो गया है वह जब इरादा करके, अभिमानपूर्वक बेकार हुए अंग को हिलाता है, तब हिलता है। वह बीमार अंग को हिलाने रूपी क्रिया का कर्त्ता बना। आत्मा का गुण अकर्त्ता का है। मोहग्रस्त होकर अपने को कर्त्ता मानने-वाले आत्मा को मानो लकवा हो गया है और वह अभिमानी होकर कर्म करता है। इस भाँति जो कर्म की गति को जानता है, वही बुद्धिमान योगी कर्त्तव्यपरायण गिना जाता है। ʻमैं करता हूँ ̕ यह मानने वाला कर्म-विकर्म का भेद भूल जाता है और साधन के भले-बुरे का विचार नहीं करता। आत्मा की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है, इसलिए जब मनुष्य नीति-मार्ग से हटता है तब यह कहा जाना चाहिए कि उसमें अहंकार अवश्य है। अभिमान रहित पुरुष के कर्म से ही सात्त्विक होते हैं। यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:। जिसके समस्त आरंभ कामना और संकल्परहित हैं, उसके कर्म ज्ञानरूपी अग्नि द्वारा भस्म हो गये हैं, ऐसे ही ज्ञानी लोग पंडित कहते हैं। जिसने कर्म फल का त्याग किया है, जो सदा संतुष्ट रहता है, जिसे किसी आश्रय की लालसा नहीं है, वह कर्म में अच्छी तरह लगे रहने पर भी, कहा जा सकता है कि वह कुछ भी नहीं करता। टिप्पणी- अर्थात उसे कर्म का बंधन भोगना नहीं पड़ता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज