गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। हे धनंजय! समत्वबुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है। तू समत्वबुद्धि का आश्रय ले। फल को हेतु बनाने वाले मनुष्य दया के पात्र हैं। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। बुद्धियुक्त अर्थात समता वाले पुरुष को यहाँ पाप-पुण्य का स्पर्श नहीं होता, इसलिए तू समत्व के लिए प्रयत्न कर। समता ही कार्यकुशलता है। कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं तयक्त्वा मनीषिण:। क्योंकि समत्व बुद्धि वाले लोग कर्म से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके जन्म-बंधन से मुक्त हो जाते हैं और निष्कंलक गति-मोक्षपद-पाते हैं। यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। जब तेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से पार उतर जायगी तब तुझे सुने हुए के विषय में और सुनने को जो बाकी होगा उसके विषय में उदासीनता प्राप्त होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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