गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दूसरा अध्याय
सांख्ययोग
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से व्यग्र हुई तेरी बुद्धि जब समाधि में स्थिर होगी तभी तू समत्व को प्राप्त होगा। अर्जुन उवाच हे केशव ! स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ के क्या लक्षण होते हैं ? स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता, बैठता और चलता है ? श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान बोले- हे पार्थ! जब मनुष्य मन में उठती हुई समस्त कामनाओं का त्याग करता है और आत्मा द्वारा ही आत्मा में संतुष्ट रहता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। टिप्पणी- आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट रहना अर्थात आत्मा का आनंद अंदर से खोजना, सुख-दु:ख देने वाली बाहरी चीजों पर आनंद का आधार न रखना। आनंद सुख से भिन्न वस्तु है, यह ध्यान में रखना चाहिए। मुझे धन मिलने पर मैं उसमें सुख मानूं यह मोह है। मैं भिखारी होऊं , भूख का दु:ख होने पर भी चोरी या दूसरे प्रलोभनों में न पड़ने में जो बात मौजूद है वह आनंद देती है और वही आत्मसंतोष है। दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:। दु:ख से जो दुखी न हो, सुख की इच्छा न रखे और जो राग, भय और क्रोध से रहित हो वह स्थिरबुद्धि मुनि कहलाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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