गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 49

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना


तात्पर्य, गीता की भक्ति बाह्याचारिता नहीं है, अंधश्रद्धा नहीं है। गीता में बताये उपचार का बाह्य चेष्‍टा या क्रिया के साथ कम-से-कम संबंध है, माला, तिलक अर्ध्यादि साधन भले ही भक्त बरते, पर वे भक्ति के लक्षण नहीं हैं। जो किसी का द्वेष नहीं करता, जो करुणा का भंडार है और ममता- रहित है, जो निरहंकार है, जिस सुख-दु:ख, शीत-उष्‍ण समान है, जो क्षमाशील है, जो सदा संतोषी है, जिनके निश्‍चय कभी बदलते नहीं, जिसने मन और बुद्धि ईश्वर को अर्पण कर दिये हैं, जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगों का भय नहीं रखता, जो हर्ष-शोक-भयादि से मुक्‍त है, जो पवित्र है, जो कार्यदक्ष होने पर भी तटस्‍थ है, जो शुभाशुभ का त्‍याग करने- वाला है, जो शत्रु-मित्र पर समभाव रखने-वाला है, जिसे मान-अपमान समान है, जिसे स्‍तुति से खुशी नहीं होती और निंदा से ग्‍लानि नहीं होती, जो मौनधारी है, जिसे एकांत प्रिय है, जो स्थिरबुद्धि है, वह भक्त है। यह भक्ति आसक्‍त स्‍त्री-पुरुषों में संभव नहीं है।

इसमें से हम देखते हैं कि ज्ञान प्राप्‍त करना, भक्‍त होना ही आत्‍मदर्शन है। आत्‍मदर्शन उससे भिन्‍न वस्‍तु नहीं है। जैसे रूपये के बदले में जहर खरीदा जा सकता है और अमृत भी लाया जा सकता है, वैसे ज्ञान या भक्ति के बदले बंधन भी लाया जा सके और मोक्ष भी, यह सम्‍भव नहीं है। यहां तो साधन और साध्‍य, बिल्कुल एक नहीं तो लगभग एक ही वस्‍तु हैं, साधन की पराकाष्‍ठा जो है, वही मोक्ष है और गीता के मोक्ष का अर्थ परम शांति है।

किन्‍तु ऐसे ज्ञान और भक्ति को कर्म-फल-त्‍याग की कसौटी पर चढ़ना ठहरा। लौकिक कल्‍पना में शुष्‍क पंडित भी ज्ञानी मान लिया जाता है। उसे कुछ काम करने को नही रहता। हाथ से लोटा तक उठाना भी उसके लिए कर्म-बंधन है। यज्ञशून्‍य जहाँ ज्ञानी गिना जाय वहाँ लोटा उठाने- जैसी तुच्‍छ लौकिक क्रिया को स्‍थान ही कैसे मिल सकता है ?

लौकिक कल्‍पना में भक्त से मतलब है बाह्याचारी[1], माला लेकर जप करने वाला। सेवा-कर्म करते भी उसकी माला में विक्षेप पड़ता है। इस- लिए वह खाने-पीने आदि भोग-भोगने के समय ही माला को हाथ से छोड़ता है, चक्‍की चलाने का रोगी की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए कभी नहीं छोड़ता। इन दोनों वर्गों को गीता ने साफतौर से कह दिया, ʻʻकर्म बिना किसी ने सिद्धि नहीं पाई। जनकादि भी कर्म द्वारा ज्ञानी हुये। यदि मैं भी आलस्‍य रहित होकर कर्म न करता रहूँ तो इन लोकों का नाश हो जाय।ʼʼ तो फिर लोगों के लिए पूछना ही क्‍या रह जाता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो ब्रह्माचार में लीन रहता है और शुद्ध भाव से मानता है कि यही भक्ति है।

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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