गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
प्रस्तावना
इसमें से हम देखते हैं कि ज्ञान प्राप्त करना, भक्त होना ही आत्मदर्शन है। आत्मदर्शन उससे भिन्न वस्तु नहीं है। जैसे रूपये के बदले में जहर खरीदा जा सकता है और अमृत भी लाया जा सकता है, वैसे ज्ञान या भक्ति के बदले बंधन भी लाया जा सके और मोक्ष भी, यह सम्भव नहीं है। यहां तो साधन और साध्य, बिल्कुल एक नहीं तो लगभग एक ही वस्तु हैं, साधन की पराकाष्ठा जो है, वही मोक्ष है और गीता के मोक्ष का अर्थ परम शांति है। किन्तु ऐसे ज्ञान और भक्ति को कर्म-फल-त्याग की कसौटी पर चढ़ना ठहरा। लौकिक कल्पना में शुष्क पंडित भी ज्ञानी मान लिया जाता है। उसे कुछ काम करने को नही रहता। हाथ से लोटा तक उठाना भी उसके लिए कर्म-बंधन है। यज्ञशून्य जहाँ ज्ञानी गिना जाय वहाँ लोटा उठाने- जैसी तुच्छ लौकिक क्रिया को स्थान ही कैसे मिल सकता है ? लौकिक कल्पना में भक्त से मतलब है बाह्याचारी[1], माला लेकर जप करने वाला। सेवा-कर्म करते भी उसकी माला में विक्षेप पड़ता है। इस- लिए वह खाने-पीने आदि भोग-भोगने के समय ही माला को हाथ से छोड़ता है, चक्की चलाने का रोगी की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए कभी नहीं छोड़ता। इन दोनों वर्गों को गीता ने साफतौर से कह दिया, ʻʻकर्म बिना किसी ने सिद्धि नहीं पाई। जनकादि भी कर्म द्वारा ज्ञानी हुये। यदि मैं भी आलस्य रहित होकर कर्म न करता रहूँ तो इन लोकों का नाश हो जाय।ʼʼ तो फिर लोगों के लिए पूछना ही क्या रह जाता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो ब्रह्माचार में लीन रहता है और शुद्ध भाव से मानता है कि यही भक्ति है।
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