गीता माता -महात्मा गांधी पृ. 50

गीता माता -महात्मा गांधी

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अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना


परन्‍तु एक ओर से कर्ममात्र बन्‍धन रूप हैं, यह निर्विवाद है। दूसरी ओर से देही इच्‍छा-अनिच्‍छा से भी कर्म करता रहता है। शारीरिक या मानसिक सभी चेष्‍टाएं कर्म हैं। तब कर्म करते हुए भी मनुष्‍य बंधन मुक्‍त कैसे रहे? जहाँ तक मुझे मालूम है, इस समस्‍या को गीता ने जिस तरह हल किया है, वैसे दूसरे किसी भी धर्म-ग्रंथ ने नहीं किया है। गीता का कहना है, ʻʻफलासक्ति छोड़ो और कर्म करोʼʼ, ʻʻआशारहित होकर कर्म करोʼʼ, ʻʻ निष्‍काम होकर कर्म करो।ʼʼ यह गीता की वह ध्‍वनि है, जो भुलाई नहीं जा सकती। जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता। कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। फल-त्‍याग का यह अर्थ नहीं विचार और उसका ज्ञान अत्‍यावश्‍यक है। इतना होने के बाद जो मनुष्‍य परिणाम की इच्‍छा किये बिना साधन में तन्‍मय रहता है, वह फलत्‍यागी है।

पर यहाँ फलत्‍याग का कोई यह अर्थ न करे कि त्‍यागी को फल मिलता नहीं। गीता में ऐसे अर्थ को कहीं स्‍थान नहीं है। फलत्‍याग से मतलब है फल के सम्‍बन्‍ध में आसक्ति का अभाव। वास्‍तव में देखा जाय तो फलत्‍यागी को तो हजार गुना फल मिलता है। गीता के फल त्‍याग में तो अपरिमित श्रद्धा की परीक्षा है। जो मनुष्‍य परिणाम का ध्‍यान करता रहता है, वह बहुत बार कर्म-कर्तव्‍य भ्रष्‍ट हो जाता है। उसे अधीरता घेरती है, इससे वह क्रोध के वश हो जाता है और फिर वह न करने योग्‍य करने लग पड़ता है, एक कर्म में से दूसरे में और दूसरे में से तीसरे में पड़ता जाता है। परिणाम की चिंता करने वाले की स्थिति विषयांध की-सी हो जाती है। और अन्‍त में वह विषयी की भाँति सारासार का, नीति, अनीति का विवेक छोड़ देता है, और फल प्राप्‍त करने के लिए हर किसी साधन से काम लेता है और उसे धर्म मानता है।

फलासक्ति के ऐसे कटु परिणामों में से गीताकार ने अनासक्ति का अर्थात कर्मफल त्‍याग का सिद्धांत निकाला और संसार के सामने अत्‍यन्‍त आकर्षक भाषा में रखा। साधारणत: तो यह माना जाता है कि धर्म और अर्थ विरोधी वस्‍तु हैं, ʻʻव्‍यापार इत्‍यादि लौकिक व्‍यवहार में धर्म नहीं बचाया जा सकता, धर्म को जगह नहीं हो सकती, धर्म का उपयोग केवल मोक्ष के लिए किया जा सकता है। धर्म की जगह धर्म शोभा देता है और अर्थ की जगह अर्थ।̕̕" बहुतों से ऐसा कहते हम सुनते हैं। गीताकार ने इस भ्रम को दूर किया है। उसने मोक्ष और व्‍यवहार के बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्‍यवहार में धर्म को उतारा है। जो धर्म व्‍यवहार में न लाया जा सके, वह धर्म नहीं है, मेरी समझ से यह बात गीता में है। मतलब, गीता के मतानुसार जो कर्म ऐसे हैं कि आसक्ति के बिना हो ही न सकें, वे सभी त्याज्‍य हैं। ऐसा सुवर्ण नियम मनुष्‍य को अनेक धर्म-संकटों से बचाता है। इस मत के अनुसार खून, झूठ, व्‍यभिचार इत्‍यादि कर्म अपने- आप त्‍याज्‍य हो जाते हैं। मानव-जीवन सरल बन जाता है और सरलता में से शांति उत्‍पन्‍न होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता माता
अध्याय पृष्ठ संख्या
गीता-बोध
पहला अध्याय 1
दूसरा अध्‍याय 3
तीसरा अध्‍याय 6
चौथा अध्‍याय 10
पांचवां अध्‍याय 18
छठा अध्‍याय 20
सातवां अध्‍याय 22
आठवां अध्‍याय 24
नवां अध्‍याय 26
दसवां अध्‍याय 29
ग्‍यारहवां अध्‍याय 30
बारहवां अध्‍याय 32
तेरहवां अध्‍याय 34
चौदहवां अध्‍याय 36
पन्‍द्रहवां अध्‍याय 38
सोलहवां अध्‍याय 40
सत्रहवां अध्‍याय 41
अठारहवां अध्‍याय 42
अनासक्तियोग
प्रस्‍तावना 46
पहला अध्याय 53
दूसरा अध्याय 64
तीसरा अध्याय 82
चौथा अध्याय 93
पांचवां अध्याय 104
छठा अध्याय 112
सातवां अध्याय 123
आठवां अध्याय 131
नवां अध्याय 138
दसवां अध्याय 147
ग्‍यारहवां अध्याय 157
बारहवां अध्याय 169
तेरहवां अध्याय 174
चौहदवां अध्याय 182
पंद्रहवां अध्याय 189
सोलहवां अध्याय 194
सत्रहवां अध्याय 200
अठारहवां अध्याय 207
गीता-प्रवेशिका 226
गीता-पदार्थ-कोश 238
गीता की महिमा
गीता-माता 243
गीता से प्रथम परिचय 245
गीता का अध्ययन 246
गीता-ध्यान 248
गीता पर आस्था 250
गीता का अर्थ 251
गीता कंठ करो 257
नित्य व्यवहार में गीता 258
भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 262
गीता-जयन्ती 263
गीता और रामायण 264
राष्ट्रीय शालाओं में गीता 266
अहिंसा परमोधर्म: 267
गीता जी 270
अंतिम पृष्ठ 274

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