गीता माता -महात्मा गांधी
6 : गीता का अर्थ
लेकिन धृतराष्ट्र कौन थे? दुर्योधन, युधिष्ठिर और अर्जुन कौन थे? कृष्ण कौन थे? क्या ये सब ऐतिहासिक पुरुष थे? और क्या गीता जी में उनके स्थूल व्यवहार का ही वर्णन किया गया है। अकस्मात अर्जुन सवाल करता है और कृष्ण सारी गीता पढ़े जाते हैं। और अर्जुन यह कहकर भी कि उसका मोह नष्ट हो गया है, यही गीता फिर भूल जाता है और कृष्ण से दोबारा अनुगीता कहलवाता है! मै तो दुर्योधनादि को आसुरी और अर्जुनादि को दैवी वृति मानता हूँ। धर्मक्षेत्र यह शरीर ही है। उसमें द्वंद्व चलता ही रहता है और अनुभवी ऋषि कवि उसका तादृश वर्णन करते हैं। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं और हमेशा शुद्ध-चित्त में घड़ी की तरह टिक-टिक करते रहते हैं। यदि चित्त को शुद्धरूपी चाबी नहीं दी गई तो अंतर्यामी यद्यपि वहाँ रहते तो हैं, तथापि उनका टिक-टिकाना तो अवश्य ही बंद हो जता है। कहने का आशय यह नहीं कि इसमें स्थूल युद्ध के लिए अवकाश ही नहीं है। जिसे अहिंसा सूझी ही नहीं है, उसे यह धर्म नही सिखाया गया है कि कायर बनना चाहिए। जिसे भय लगता है, जो संग्रह करता है, जो विषय में रत है, वह अवश्य ही हिंसामय युद्ध करेगा; लेकिन उसका वह धर्म नहीं है। धर्म तो एक ही है। अहिंसा के मानी है मोक्ष और मोक्ष है सत्यनारायण का साक्षात्कार। इसमें पीठ दिखाने को तो कहीं अवकाश ही नहीं है। इस विचित्र संसार में हिंसा तो होती ही रहेगी। उससे बचने का मार्ग गीता दिखाती है; लेकिन साथ-ही-साथ गीता यह भी कहती है कि कायर होकर भागने से हिंसा से नहीं बच सकोगे। जो भागने का विचार करता है, वह तो मारेगा और मरेगा। प्रश्नकर्ता ने जिन श्लोकों का उल्लेख किया है, उनका अर्थ यदि अब भी उनकी समझ में न आवे तो मैं समझाने में असमर्थ हूँ। सर्वशक्तिमान् ईश्वर कर्ता, भर्त्ता और संहर्त्ता है और वह ऐसा ही होना चाहिए। इस विषय में कोई शंका तो ना होगी न? जो उत्पन्न करता है, वह उसका नाश करने का अधिकार भी रखता है। फिर भी वह किसी को नहीं मारता; क्योंकि वह उत्पन्न भी नहीं करता। नियम यह है कि जिसने जन्म लिया है, उसने मरने ही के लिए जन्म लिया है। ईश्वर भी इस नियम को नहीं तोड़ सकता। यही उसकी दया है। यदि ईश्वर ही स्वन्छंद और स्वेन्छाचारी बन जाय तो फिर हम सब कहाँ जावेंगे? 15 अक्टूबर, 1925 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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