गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
बारहवां अध्याय
भक्तियोग
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। जिसे हर्ष नहीं होता, जो द्वेष नहीं करता, जो चिंता नहीं करता, जो आशाएं नहीं बांधता, जो शुभाशुभ का त्याग करने वाला है, वह भक्तिपरायण मुझे प्रिय है। सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:। शत्रु-मित्र,मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दु:ख - इन सब में जो समतावान है, जिसने आसक्ति छोड़ दी है, जो निंदा और स्तुति में समान भाव से बर्तता है और मौन धारण करता है, चाहे जो मिले उससे जिसे संतोष है, जिसका कोई अपना निजी स्थान नहीं है, जो स्थिर चित्त वाला है, ऐसा मुनि भक्त मुझे प्रिय है। ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। यह पवित्र अमृत रूप ज्ञान जो मुझमें परायण रहकर श्रद्धा-पूर्वक सेवन करते हैं वे मेरे अतिशय प्रिय भक्त हैं। ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद् अर्थात ब्रह्म विद्यान्तर्गत योग-शास्त्र के श्रीकृष्णार्जुन-संवाद का ʻभक्तियोग̕ नामक बारहवां अध्याय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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